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________________ गुणादिपरिचय । श्रीनरेन्द्रसेनाचार्य भी, अपने सिद्धान्तसारसंग्रह ' में ऐसा ही भाव प्रकट करते हैं । आप समंतभद्रके वचनको 'अनव' (निष्पाप) सूचित करते हुए उसे मनुष्यत्वकी प्राप्तिकी तरह दुर्लभ बतलाते हैं। यथा-- श्रीमत्समंतभद्रस्य देवस्यापि वचोऽनघं । प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुषत्वं तथा पुनः ॥ ११ ॥ शक संवत् ७०५ में 'हरिवंशपुराण' को बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने समंतभद्रके वचनोंको किस कोटिमें रक्खा है और उन्हें किस महापुरुषके वचनोंकी उपमा दी है, यह सब उनके निम्न वाक्यसे प्रकट है जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनं । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़ुभते ॥ ३०॥ इस पद्यमें जीवसिद्धिका विधान करनेवाले और युक्तियोंद्वारा अथवा युक्तियोंका अनुशासन करनेवाले समंतभद्रके वचनोंकी बाबत यह कहा गया है कि वे वीर भगवानके वचनोंकी तरह प्रकाशमान हैं, अर्थात् अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर भगवानके वचनोंके समकक्ष हैं और प्रभावादिकमें भी उन्हींके तुल्य है। जिनसेनाचार्यका यह कथन समंतभद्रके 'जीवसिद्धि' और 'युक्तयनुशासन' नामक दो ग्रंथोंके उल्लेखको लिये हुए है, और इससे उन ग्रंथों (प्रवचनों) का महत्त्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है। प्रमाणनयनिर्णीतवस्तुतत्त्वमबाधितं । जीयात्समंतभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशासनं ॥ -युक्त्यनुशासनटीका।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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