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________________ ४३ गुणादिपरिचय। किया, इस परिचयके 'कलिकालमें' ( काले कलौ) शब्द खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं और उनसे दो अर्थोकी ध्वनि निकलती हैएक तो यह कि, कलिकालमें स्याद्वादतीर्थको प्रभावित करना बहुत कठिन कार्य था, समंतभद्रने उसे पूरा करके निःसन्देह एक ऐसा कठिन कार्य किया है जो दूसरोंसे प्रायः नहीं हो सकता था अथवा नहीं हो सका था; और दूसरा यह कि, कलिकालमें समंतभद्रसे पहले उक्त तीर्थकी प्रभावना-महिमा या तो हुई नहीं थी, पा वह होकर लुप्तप्राय हो चुकी थी और या वह कभी उतनी और उतने महत्त्वकी नहीं हुई थी जितनी और जितने महत्त्वकी समंतभद्र के द्वारा उनके समयमें, हो सकी है। पहले अर्थमें किसीको प्रायः कुछ भी विवाद नहीं हो सकता-कलिकालमें जब कलुषाशयकी वृद्धि हो जाती है तब उसके कारण अच्छे कामोंका प्रचलित होना कठिन हो ही जाता है-स्वयं समंतभद्राचार्यने, यह सूचित करते हुए कि महावीर भगवानके अनेकान्तात्मक शासनमें एकाधिपतित्वरूपी लक्ष्मीका स्वामी होनेकी शक्ति है, कलिकालको भी उस शक्तिके अपवादका --एकाधिपत्य प्राप्त न कर सकनेका-एक कारण माना है। यद्यपि, कलिकाल उसमें एक साधारण बाह्य कारण है, असाधारण कारणमें उन्होंने श्रोताओंका कलुषित आशय ( दर्शनमोहाक्रान्त चित्त ) और प्रवक्ता ( आचार्य ) का वचनानय ( वचनका अप्रशस्त निरपेक्ष नयके ,'एकाधिपतित्वं सर्वैरवश्याश्रयणीयत्वम् '--इति विद्यानंदः । सभी जिसका अवश्य आश्रय प्रहण करें, ऐसे एक स्वामीपनेको एकाधिपतित्व या एकाधिपत्य कहते हैं। २ अपवादहेतु यः साधारणः कलिरेव कालः, इति विद्यानंदः । ३ जो नय परस्पर अपेक्षारहित हैं वे मिथ्या हैं और जो अपेक्षासहित है वे सम्यक् अथवा वस्तुतस्व कहलाती हैं । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने कहा है-- 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽयंकर ' -देवागम।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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