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________________ गुणादिपरिचय । मार्गपर चलनेका उपदेश ही न देते थे बल्कि उन्होंने स्वयं अपने जीवनको स्याद्वादके रंगमें पूरी तौरसे रंग लिया था और वे उस मार्गके सच्चे तथा पूरे अनुयायी थे * । उनकी प्रत्येक बात अथवा क्रियासे अनेकान्तकी ही ध्वनि निकलती थी और उनके चारों ओर अनेकान्तका ही साम्राज्य रहता था। उन्होंने स्याद्वादका जो विस्तृत वितान या शामियाना ताना था उसकी छत्रछायाके नीचे सभी लोग अपने अज्ञान तापको मिटाते हुए, सुखसे विश्राम कर सकते थे । वास्तवमें समन्तमद्रके द्वारा स्याद्वाद विद्याका बहुत ही ज्यादा विकास हुआ है । उन्होंने स्याद्वादन्यायको जो विशद और व्यवस्थित रूप दिया है वह उनसे पहलेके किसी भी ग्रंथमें नहीं पाया जाता । इस विषयमें, आपका 'आप्तमीमांसा' नामका ग्रंथ, जिसे 'देवागम' स्तोत्र भी कहते हैं. एक खास तथा अपूर्व ग्रंथ है । जैनसाहित्यमे उसकी जोड़का दूसरा कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। ऐसा मालूम होता है कि समंतभद्रसे पहले जैनधर्मकी स्याद्वाद-विद्या बहुत कुछ लुप्त हो चुकी थी, जनता उससे प्रायः अनभिज्ञ थी और इससे उसका जनता पर कोई प्रभाव नहीं था । समंतभद्र ने अपनी असाधारण प्रतिभासे उस विद्याको पुनरुज्जीवित किया और उसके प्रभावको सर्वत्र व्याप्त किया है। इसीसे विद्वान् लोग ___ * भट्टाकलंकदेवने भी समंतभद्रको स्यादाद मार्गके परिपालन करनेवाले लिखा है। साथ ही 'भव्यकलोकनयन ' ( भव्यजीवोंके लिये अद्वितीय नेत्र ) यह उनका अथवा स्याद्वादमार्गका विशेषण दिया हैश्रीवईमानमकलंकमनिपवंधपादारविन्दयुगलं प्रणिपत्य मूर्मा । भव्यैकलोकनयनं परिपालयन्तं स्थाद्वादवर्म परिणौमि समन्तभद्रम् ।। -अष्टशती। श्रीविद्यानंदाचार्यने भी, युक्त्यनुशासनको टीकाके अन्तमें 'स्याद्वादमागांनुगैः' विशेषणके द्वारा आपको स्यावाद मार्गका अनुपामी लिखा है।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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