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________________ स्वामी समन्तभद्र। २५१ सही है - तो इस कहनेमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि सिद्धसेन दिवाकरको, विक्रमादित्यकी सभाके नव रत्नों से 'क्षपणक' नामके विद्वान् मानकर और वराहमिहिरके समकालीन ठहराकर, जो ईसाकी छठी और पाँचवीं शताब्दीके विद्वान् बतलाया गया है, अथवा ___x धर्मकीर्तिके 'न्यायबिन्दु' आदि ग्रंथों के सामने मौजूद न होनेसे हम इस' विषयकी कोई जाँच नहीं कर सके । हो सकता है कि ' न्यायावतार में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणोंके जो लक्षण दिये गये हैं वे धर्मकीर्तिके लक्षणोंको भी लक्ष्य करके लिखे गये हों। 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तं' यह 'प्रत्यक्ष' का लक्षण धर्मकीर्तिका प्रसिद्ध है। न्यायावतारके चौथे पद्यमें प्रत्यक्षका लक्षण, अकलंकदेवकी तरह 'प्रत्यक्षं विशदं शानं' न देकर, जो 'अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं शानमीडशं प्रत्यक्षं' दिया है, और अगले पद्यमें, अनुमानका लक्षण देते हुए, 'तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात्समक्षवत् ' वाक्यके द्वारा उसे (प्रत्यक्षको) 'अभ्रान्त ' विशेषणसे विशेषित भी सूचित किया है उससे ऐसी ध्वनि जरूर निकलती है अथवा इस बातकी संभावना पाई जाती है कि सिद्धसेनके सामने-उनके लक्ष्यमें-धर्मकीर्तिका उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होंने अपने लक्षण में, 'ग्राहक' पदके प्रयोगद्वारा प्रत्यक्षको व्यवसायात्मक ज्ञान बतलाकर, धर्मकीर्तिके 'कल्पनापोढं' विशेषणका निरसन अथवा वेधन किया है और साथ ही, उनके 'अभ्रान्त' विशेषणको प्रकारान्तरसे स्वीकार किया है । न्यायावतारके टीकाकार भी प्राहक' पदके द्वारा बौद्धों (धर्मकीर्ति) के उक्त लक्षणका निरसन होना बतलाते हैं । यथा "प्राहकमिति च निर्णायकं दृष्टव्यं, निर्णयाभावेऽर्थग्रहणायोगात् । तेन यत् ताथागतैः प्रत्यपादि प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तमिति' तदपास्तं भवति, तस्य युक्तिरिक्तत्वात् ।" इसी तरहपर 'त्रिरूपाल्लिंगतो लिंगिज्ञानमनमानं' यह धर्मकीर्तिके अनुमानका लक्षण है। इसमें 'त्रिरूपात् ' पदके द्वारा लिंगको त्रिरूपात्मक बतलाकर अनुमानके साधारण लक्षणको एक विशेषरूप दिया गया है । हो सकता है कि इस पर लक्ष्य रखते हुए ही सिद्धसेनने अनुमानके 'साध्याविना--
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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