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________________ प्रन्य-परिचय। २३५ कुछ विद्वानोंका कहना है कि ' राजवार्तिक' टीकामें अकलंकदेवने इस पद्यको नहीं दिया-इसमें दिये हुए आप्तके विशेषणोंको चर्चा तक भी नहीं की और न विद्यानंदने ही अपनी ' श्लोकवार्तिक' टीकामें इसे उद्धृत किया है, ये ही सर्वार्थसिद्धिके बादकी दो प्राचीन टीकाएँ उपलब्ध हैं जिनमें यह पद्य नहीं पाया जाता, और इससे यह मालूम होता है कि इन प्राचीन टीकाकारोंने इस पद्यको मूलग्रंथ (तत्त्वा र्थसूत्र ) का अंग नहीं माना। अन्यथा, ऐसे महत्त्वशाली पद्यको छोड़कर खण्डरूपमें ग्रंथके उपस्थित करनेकी कोई वजह नहीं थी जिस पर ' आप्तमीमांसा ' जैसे महान् ग्रंथोंकी रचना हुई हो । __ सनातननग्रन्थमालाके प्रथम गुच्छकमें प्रकाशित तत्वार्थसूत्रमें भी, जो कि एक प्राचीन गुटके परसे प्रकाशित हुआ है, कोई मंगलाचरण नहीं है, और भी बम्बई-बनारस आदिमें प्रकाशित हुए मूल तत्त्वार्थसूत्रके कितने ही संस्करणोंमें वह नहीं पाया जाता, अधिकांश हस्तलिखित प्रतियोंमें भी वह नहीं देखा जाता और कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें वह पद्य ' त्रैकाल्यं द्रव्यषटू,' 'उज्जोवणमुजवणं' इन दोनों अथवा इनमेंसे किसी एक पद्यके साथ उपलब्ध होता है और इससे यह मालूम नहीं होता कि वह मूल ग्रंथकारका पद्य है बल्कि दूसरे पद्योंकी तरह प्रथके शुरूमें मंगलाचरणके तौरपर संग्रह किया हुआ जान पड़ता है । साथ ही श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो मूल तत्त्वार्थसूत्र प्रचलित है उसमें भी यह अथवा दूसरा कोई मंगलाचरण नहीं पाया जाता। ऐसी हालतमें लघुसमन्तभद्रके उक्त कथनका अष्टसहस्त्री ग्रंथ भी कोई स्पष्ट आधार प्रतीत नहीं होता। और यदि यह मान भी लिया जाय कि विद्यानंदने सूत्रकार या शास्त्रकारसे 'उमास्वाति'का आर
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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