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________________ प्रन्थपरिचय। २०५ कोई टीका इस ग्रंथपर बनी ही नहीं, यह अर्थ समझमें नहीं आता और न युक्तिसंगत ही मालूम होता है । अस्तु, यह टीका अच्छी और उपयोगी बनी है। ___समंतभद्रने, ग्रंथके प्रथम पद्यमें, अपनी इस रचनाका उद्देश 'आगसा जये' पदके द्वारा पापोंको जीतना सूचित किया है और टीकाकारने भी इस स्तुतिको 'घनकठिनघातिकमधनदहनसमर्था' लिखा है । इससे पाठक इस ग्रंथके आध्यात्मिक महत्त्वका कितना ही अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। ___५ 'रत्नकरंडक' उपासकाध्ययन । इसे 'रत्नकरंडश्रावकाचार' भी कहते हैं । उपलब्ध ग्रंथोंमें, श्रावकाचार विषयका, यह सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रंथ है । श्रीवादिराजसूरिने इसे 'अक्षय्यसुखावह ' और प्रभाचंद्रने ' अखिल सागारमार्गको प्रकाशित करनेवाला निर्मल सूर्य' लिखा है । इसका विशेष परिचय और इसके पद्योंकी जाँच आदि-विषयक विस्तृत लेख इस ग्रंथकी प्रस्तावनामें दिया गया है । १ यह विशेषण 'पार्श्वनाथचरित' के जिस पद्यमें दिया है वह पहले 'गुणादिपरिचय'में उद्धृत किया जा चुका है। २ देखो, रत्नकरण्डकटीकाका अन्तिम पद्य, जो इस प्रकार है येनाज्ञानतमो विनाश्य निखिलं भव्यात्मचेतोगतं सम्यग्ज्ञानमहांशुभिः प्रकाटतः सागारमार्गोऽखिलः । स श्रीरत्नकरण्डकामलरविः संसृस्सरिच्छोषको जीयादेष समन्तभद्रमुनिपः श्रीमान्प्रभेन्दुर्जिनः ॥ ३ इस विस्तृत 'प्रस्तावना में नीचे लिखे विषय हैं
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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