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________________ २०२ स्वामी समंतभद्र। मालूम नहीं है; इसी लिये यहाँपर उनका कुछ भी परिचय नहीं दिया जा सका। २ युत्यनुशासन। समन्तभद्रका यह ग्रंथ भी बड़ा ही महत्वपूर्ण तथा अपूर्व है और इसका भी प्रत्येक पद बहुत ही अर्थगौरवको लिये हुए है। इसमें, स्तोत्रप्रणालीसे, कुल ६४ * पद्यों द्वारा, स्वमत और परमतोंके गुणदोषोंका, सूत्ररूपसे, बड़ा ही मार्मिक वर्णन दिया है, और प्रत्येक विषयका निरूपण, बड़ी ही खूबीके साथ, प्रबल युक्तियोंद्वारा किया गया है । यह ग्रंथ जिज्ञासुओंके लिये हितान्वेषणके उपायस्वरूप है और इसी मुख्य उद्देश्यको लेकर लिखा गया है; जैसा कि ऊपर समंतभद्रके परिचयमें इसीके एक पद्यपरसे, जाहिर किया जा चुका है। श्रीजिनसेनाचार्यने इसे महावीर भगवानके वचनोंके तुल्य लिखा है । इस ग्रंथपर अभीतक श्रीविद्यानंदाचार्यकी बनाई हुई एक ही सुन्दर संस्कृतटीका उपलब्ध हुई है और वह ' माणिकचंद-ग्रंथमाला' में प्रकाशित भी हो चुकी है । इस टीकाके निम्न प्रस्तावना-वाक्यसे मालूम होता है कि यह ग्रंथ 'आप्तमीमांसा के बादका बना हुआ है-- "श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिराप्तमीमांसायामन्ययोगव्यवच्छेदाव्यवस्थापितेन भगवता श्रीमतार्हतान्त्यतीर्थकरपरमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षवो भवंत इति ते पृष्टा इव प्राहुः-" __* सन् १९०५ में प्रकाशित 'सनातनजैनप्रन्यमाला के प्रथम गुच्छकमें इस प्रथके पद्योंकी संख्या ६५ दी है, परंतु यह भूल है। उसमें ४०वें नम्बर पर को 'स्तो युच्यनुशासन' नामका पर दिया है वह टीकाकारका पद्य है, मूलग्रंथका नहीं । और मा० ग्रंथमालामें प्रकाशित इस अंधके पचों पर गलत नम्बर पड़ जानेसे ६५ संख्या मालूम होती है।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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