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________________ २०० स्वामी समंतभद्र। नामका पद्य मूलरूपसे दिया हुआ है और उसपर नंबर भी क्रमशः १४४ डाला है । परंतु वह मूलग्रंथका पद्य कदापि नहीं है । 'आप्तमीमांसा'की जिन चार टीकाओंका ऊपर उल्लेख किया गया है उनके सिवाय' 'देवागम-पद्यवार्तिकालंकार' नामकी एक पाँचवीं टीका भी जान पड़ती है जिसका उल्लेख युक्त्यनुशासन-टीकामें निम्न प्रकारसे पाया जाता है 'इति देवागमपद्यवार्तिकालंकारे निरूपितप्रायम्'। इससे मालूम होता है कि यह टीका प्रायः पद्यात्मक है। मालूम नहीं इसके रचयिता कौन आचार्य हुए हैं। संभव है कि ' तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार की तरह इस 'देवागमपद्यवार्तिकालंकार' के कर्ता भी श्रीविद्यानंद आचार्य ही हों और इस तरहपर उन्होंने इस ग्रंथकी एक गद्यात्मक ( अष्टसहस्री) और दूसरी यह पद्यात्मक ऐसी दो टीकाएँ लिखी हो परंतु यह बात अभी निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सकती । अस्तु; इन टीकाओंमें 'अष्टसहस्री' पर 'अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका' नामकी एक टिप्पणी लघुसमंतभद्राचार्यने लिखी है और दूसरी टिप्पणी श्वेताम्बरसम्प्रदायके महान् आचार्य तथा नैय्यायिक विद्वान् उपाध्याय श्रीयशोविजयजीकी लिखी हुई है। प्रत्येक टिप्पणी परिमाणमें अष्टसहस्री जितनी ही है- अर्थात् दोनों आठ आठ, हजार श्लोकोंवाली हैं। परंतु यह सब कुछ होते हुए भीऐसी ऐसी विशालकाय तथा समर्थ टीकाटिप्पणियोंकी उपस्थितिमें भी'देवागम' अभीतक विद्वानोंके लिये दूरूह और दुर्बोधसा बना हुआ . १ देखो माणिकचंद-ग्रंथमालामें प्रकाशित 'युक्त्यनुशासन' पृष्ठ ९४ ।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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