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________________ १९८ स्वामी समन्तभद्र। जयति जगति क्लेशावेशप्रपंचहिमांशुमान् विहतविषमैकान्तध्वान्तप्रमाणनयांशुमान् । यतिपतिरजो यस्याधृष्टान्मताम्बुनिघेलवान् स्वमतमतयस्तीथ्यो नाना परे समुपासते ॥ ११५॥ यह पद्य यदि वृत्तिके अंतमें ऐसे ही दिया होता तो हम यह नतीजा निकाल सकते थे कि यह वसुनन्दि आचार्यका ही पद्य है और उन्होंने अपनी वृत्तिके अन्त-मंगलस्वरूप इसे दिया है। परंतु उन्होंने इसकी वृत्ति दी है और साथ ही इसके पूर्व निम्न प्रस्तावनावाक्य भी दिया ___ "कृतकृत्यो नियूंढतत्त्वप्रतिज्ञ आचार्यः श्रीसमन्तभद्रकेसरी प्रमाण-नयतीक्ष्णनखरदंष्ट्राविदारित-प्रवादिकुनयमदवितलकुंभिकुंभस्थलपाटनपटुरिदमाह--" इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं, एक तो यह कि यह पद्य वसुनन्दि आचार्यका नहीं है, दूसरे यह कि वसुनन्दिने इसे समन्तभद्रका ही, ग्रंथके अन्त मंगलस्वरूप, पद्य समझा है और वैसा समझ कर ही इसे वृत्ति तथा प्रस्तावनासहित दिया है। परंतु यह पद्य, वास्तवमें, मूल ग्रंथका अन्तिम पद्य है या नहीं यह बात अवश्य ही विचारणीय है और उसीका यहाँ पर विचार किया जाता है इस ग्रंथपर भट्टाकलंकदेवने एक भाष्य लिखा है जिसे 'अष्टशती' कहते हैं और श्रीविद्यानंदाचार्यने 'अष्टसहस्री' नामकी एक बड़ी टीका लिखी है जिसे 'आप्तमीमांसालंकृति' तया 'देवागमालंकृति' मी कहते हैं । इन दोनों प्रधान तथा प्राचीन टीकाग्रंथोंमें इस पथको मूल ग्रंथका कोई अंग स्वीकार नहीं किया गया और न इसकी कोई
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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