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________________ समय-निर्णय । १७९ (३) किसी भी ग्रंथ अथवा शिलालेखादिमें ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता जिससे यह साफ तौरपर विदित होता हो कि उक्त माघनंदी, धरसेन, पुष्पदंत, भूतबलि, तथा गुणधर, नागहस्ति, आर्यभक्षु, यतिवृषभ और उच्चारणाचार्य, ये सब अथवा इनमेंसे कोई भी-कुन्दकुन्दकी आचार्यसंततिमें अथवा उनके बाद हुए हैं। कुन्दकुन्दके बाद होनेवाले आचार्योंकी जगह जगह अनेक नाममालाएँ मिलती हैं, उनमेंसे किसीमें भी इन आचार्योंका कोई नाम न होनेसे इन आचार्योंका कुन्दकुन्दके बाद होना जरूर खटकता है। हाँ एक स्थानपर-श्रवणबेलगोलके १०५ ( २५४ ) नम्बरके शिलालेखमेंये वाक्य जरूर पाये जाते हैं यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्यद्वितयेन रेजे । फलप्रदानाय जगज्जनानां प्राप्तोङ्कुराभ्यामिवकल्पभूजः ॥ अर्हद्धलिस्संघचतुर्विधं स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसंघ । कालस्वभावादिह जायमान-द्वेषेतराल्पीकरणाय चक्रे ॥ सिताम्बरादौ विपरीतरूपेऽखिले विसंधे वितनोतु भेदं । तत्सेन नन्दि-त्रिदिवेश-सिंहस्संघेषु यस्तं मनुते कुदृक्षः॥ इन वाक्योंमें यह बतलाया गया है कि "पुष्पदन्त और भूतबलि दोनों अर्हद्वलिके शिष्य थे और उनसे अर्हद्वलि ऐसे राजते थे मानों जगजनोंको फल देनेके लिये कल्पवृक्षने दो नये अंकुर ही धारण किये हैं । इन्हीं अर्हद्वलिने कालस्वभावसे उत्पन्न होनेवाले रागद्वेषों को घटानेके लिये कुन्दकुन्दान्वयरूपी मूलसंघको चार भागोंमें विभाजित किया था और वे विभाग सेन, नन्दि, देव तथा सिंह नामके चारसंघ हैं ....इन चारों संबोंमें जो वास्तविक भेद मानता है वह कुदृष्टि है।"
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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