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________________ पितृकुल और गुरुकुल। हैं उसी प्रकार ७९ वें + पधमें उन्होंने 'ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसं' विशेषणके द्वारा अपनेको उल्लेखित किया है । इस विशेषणसे मालूम होता है कि समन्तभद्रके मनसे यद्यपि त्रास उद्वेग-बिलकुल नष्ट ( अस्त ) नहीं हुआ था-सत्तामें कुछ मौजूद जरूर था-फिर भी वह ध्वंसमानके समान हो गया था, और इस लिये उनके चित्तको, उद्वे जित अथवा संत्रस्त करनेके लिये समर्थ नहीं था । चित्तकी ऐसी स्थिति बहुत ऊँचे दर्जे पर जाकर होती है और इस लिये यह विशेषण भी समन्तभद्रके मुनिजीवनकी उत्कृष्ट स्थितिको सूचित करता है और यह बतलाता है कि इस ग्रंथकी रचना उनके मुनिजीवनमें ही हुई है । टीकाकार नरसिंहभट्टने भी, प्रथम पद्यकी प्रस्तावनामें 'श्रीसमन्तभद्राचार्यविरचित' लिखनेके अतिरिक्त, ८४ वें पद्यमें आए हुए 'ऋद्धं ' विशेषणका अर्थ 'वृद्धं' करके, और ११५ वें पद्यके 'वन्दीभूतवतः' पदका अर्थ · मंगलपाठकी भूतवतोपि नमाचार्यरूपेण भवतोपि मम' ऐसा देकर, यही सूचित किया है कि यह ग्रंथ समन्तभद्रके मुनिजीवनका बना हुआ है । अस्तु । __ स्वामी समन्तभद्रने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया और विवाह कराया या कि नहीं, इस बातके जाननेका प्रायः कोई साधन नहीं है । हाँ, यदि यह सिद्ध किया जा सके कि कदम्बवंशी राजा शान्तिवर्मा और शान्तिवर्मा समंतभद्र दोनों एक ही व्यक्ति थे तो यह सहजहीमें बतलाया जा सकता है कि आपने गृहस्थाश्रमको धारण किया था और विवाह भी कराया था। साथ ही, यह भी कहा जा सकता है कि आपके पुत्रका नाम है यह पूरा पथ इस प्रकार है स्वसमाम समानन्या भासमान समाउनष। ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसमानतम् ॥
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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