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________________ १६० स्वामी समन्तभद्र। इन्द्रनंदि आचार्यके 'श्रुतावतार से मालूम होता है कि भगवान् महावीरकी निर्वाण-प्राप्तिके बाद ६२ वर्षके भीतर तीन केवली, उसके बाद १०० वर्षके भीतर पाँच श्रुतकेवली, फिर १८३ वर्षके भीतर ग्यारह मुनि दशपूर्वके पाठी, तदनंतर २२० वर्षके भीतर पाँच एकादशांगधारी और तत्पश्वात् ११८ वर्षमें चार आचारांगके धारी मुनि हुए। इस तरह वीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष पर्यंत अंगज्ञान रहा । इसके बाद चार आरातीय मुनि अंग और पूर्वोके एकदेशज्ञानी हुए, उनके बाद 'अर्हद्वाल, अर्हद्वलिके अनन्तर ' माघनन्दि' और माघनन्दिके पश्चात् 'धरसेन' नामके आचार्य हुए, जो 'कर्मप्राभृत'के ज्ञाता थे। इन मुनिराजने अपनी आयु अल्प जानकर और यह खयाल करके कि हमारे पीछे कर्मप्राभृत श्रुतका ज्ञान व्युच्छेद न होने पावे, वेणाक तटके मुनिसंघसे दो तीक्ष्णबुद्धि मुनियोंको बुलवाया, जो बादमें 'पुष्पदन्त' और 'भूतबलि' नामसे प्रसिद्ध हुए और उन्हें वह समस्त श्रुत अच्छी तरहसे व्याख्या करके पढ़ा दिया। तत्पश्चात् पुष्पदन्त और भूतबलिने कर्मप्राभुतको संक्षिप्त करके षट्खण्डागमका रूप दिया और उसे द्रव्यपुस्तकारुढ किया-अर्थात्, लिपिबद्ध करा दिया । उधर गुणधर आचार्यने ' कषायप्राभूत' अपरनाम 'दोषप्राभूत के गाथासूत्रोंकी रचना करके उन्हें ' नागहस्ति' और ' आर्यमा' नामक मुनियोंको पढ़ाया, उनसे ' यतिवृषभ'ने पढ़कर उन गाथाओंपर चूर्णिसूत्र रचे और यतिवृषभसे : उच्चारणाचार्य' ने अध्ययन करके चूर्णिसूत्रोंपर वृत्तिसूत्र लिखे । इस प्रकार गुणधर, यतिवृषभ और उच्चारणाचार्यके द्वारा कषायप्राभूतकी - रचना होकर वह भी द्रव्यपुस्तकारुढ हो गया। जब कर्मप्राभूत और कषायप्राभृत दोनों सिद्धान्त द्रव्यभावरूपसे पुस्तकारूढ हो गये तब कोण्डकुन्दपुरमें पद्मनन्दि ( कुंदकुंद ) नामके
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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