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________________ समय-निर्णय । १४५ द्वितीय प्रतिष्ठित हुए । श्रवणबेलगोलके कितने ही शिलालेखोंमें उमास्वातिके प्रधान शिष्य रूपसे 'बलाकपिच्छ'का ही नाम दिया है, बलाकपिच्छकी शिष्यपरम्पराका भी उल्लेख किया है और यहाँपर उसकी जगह लोहाचार्यका नाम पाया जाता है। इसकी बाबत, यद्यपि, यह कहा जा सकता है कि बलोकपिच्छ लाहाचार्यका ही नामान्तर होगा,-जैसे उमास्वातिका नामान्तर 'गृध्रपिच्छ'-अथवा लोहाचार्य उमास्वातिके कोई दूसरे ही शिष्य होंगे परंतु फिर भी इस पट्टावलीपर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता। इसमें प्राचीन आचार्योंका समय और क्रम बहुत कुछ गड़बड़में पाया जाता है। उदाहरणके लिये पूज्यपाद (देवनन्दी) के समयको ही लीजिये, पट्टावलीमें वह वि० सं० २५८ से ३०८ तक दिया है । दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि पट्टावलीमें पूज्यपादके आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होनेका समय ई० सन् २०० के करीब बतलाया है; परन्तु इतिहाससे जैसा कि ऊपर जाहिर किया गया है, वह ४५० के करीब पाया जाता है, और इस लिये दोनोंमें करीब अढाईसौ ( २५० ) वर्षका भारी अन्तर है। इतिहासमें पूज्यपादके शिष्य वज्रनन्दिका उल्लेख मिलता है और यह भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने वि० सं० ५२६ में 'द्राविड' संघकी स्थापना की, परन्तु पट्टावलीमें पूज्यपादके बाद दो आचार्यों ( जयनन्दी और गुणनन्दी) का उल्लेख करके चौथे (१३) नम्बर पर वज्रनन्दीका नाम दिया है और साथ १ देखो, शिलालेख नं. ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, १०५ और १०८ । २ यह असली नाम मालूम भी नहीं होता; जान पड़ता है बलाक (बक, सारस) की पीछी रखनेके कारण इनका यह नाम प्रसिद्ध हुआ है। इनके गुरु गूधकी पीछी रखते थे। इससे मयूरकी पीछीका उस समय कोई खास आग्रह मालम नहीं पड़ता। १०
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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