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________________ १३२ स्वामी समन्तभद्र। लिये, ' न्यायावतार' में इस पद्यकी स्थिति आदिको देखते हुए हमारी यही राय होती है कि यह पय वहाँपर क्षेपक है, और ग्रंथकी वर्तमान टीकासे, जिसे कुछ विद्वान् चंद्रप्रभसूरि (वि० सं० ११५९ ) की और कुछ सिद्धर्षि ( सं० ९६२ ) की बनाई हुई कहते हैं, पहले ही ग्रंथमें प्रक्षिप्त हो चुका है। अस्तु । इस पद्यके 'क्षेपक ' करार दिये जानेपर ग्रंथके पद्योंकी संख्या ३१ रह जाती है । इसपर कुछ लोग यह आपत्ति कर सकते हैं कि सिद्धसेनकी बाबत कहा जाता है कि उन्होंने 'द्वात्रिंशत्द्वात्रिंशिका ' नामसे ३२ स्तुतियाँ लिखी हैं, जिनमेंसे प्रत्येककी श्लोकसंख्या ३२ है, न्यायावतार भी उन्हींमेंसे एक स्तुति है *द्वात्रिंशिका है-उसकी पद्यसंख्या भी ३२ ही होनी चाहिये और इस लिये उक्त पद्यको क्षेपक माननेसे ग्रंथके परिमाणमें बाधा आती है । परंतु इस प्रकारकी आपत्तिके लिये वास्तवमें कोई स्थान नहीं । प्रथम तो 'न्यायावतार ' कोई स्तुतिग्रंथ ही नहीं है, उसमें मंगलाचरण तक भी नहीं और न परमात्माको सम्बोधन करके ही कोई कथन किया गया है। दूसरे, इस बातका कोई प्राचीन (टीकासे पहलेका) उल्लेख नहीं मिलता जिससे यह पाया जाता हो कि न्यायावतार 'द्वात्रिंशिका' है अथवा उसके श्लोकोंकी नियतसंख्या ३२ है; और तीसरे, सिद्धसेनकी जो २० अथवा २१ * "ए शिवाय पण 'द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका' ए स्तुतिसंग्रह ग्रंथ रच्यो छे, तेमांनो न्यायावतार एक स्तुतिरूप ग्रंथ छे ।" ऐसा न्यायावतार सटीककी प्रस्तावनामें लेरुमाई भोगीलालजी, सेक्रेटरी 'हेमचदाचार्यसभा' पट्टनने प्रतिपादन किया है। १ सिद्धसेन दिवाकरकी आम तौरपर २० द्वात्रिंशिकाएँ एकत्र मिलती हैं, सिर्फ एक प्रतिमें २१ वी द्वात्रिंशिका भी साथ मिली है, ऐसा प्रकाशकोंने सूचित किया है; और वह २१ वी द्वात्रिंशिका अपने साहित्य परसे संदिग्ध जान पड़ती है; इसी लिये यहाँपर 'अथवा' शब्दका प्रयोग किया गया है।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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