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________________ १२८ स्वामी समंतभद्र। इस पद्यकी उपस्थितिमें इसके बादका उपर्युक्त पद्य, जिसमें शास्त्र (आगम) का लक्षण दिया हुआ है, कई कारणोंसे व्यर्थ पड़ता है । प्रथम तो, उसमें शास्त्रका लक्षण आगमप्रमाणरूपसे नहीं दियायह नहीं बतलाया कि ऐसे शास्त्रसे उत्पन्न हुआ ज्ञान आगम प्रमाण अथवा शाब्दप्रमाण कहलाता है बल्कि सामान्यतया आगम पदार्थक रूपमें निर्दिष्ट हुआ है, जिसे 'रत्नकरण्डक' में सम्यग्दर्शनका विषय बतलाया गया है । दूसरे, शाब्दप्रमाणसे शास्त्रप्रमाण कोई भिनवस्तु भी नहीं है, जिसकी शाब्द प्रमाणके बाद पृथक् रूपसे उल्लेख करनेकी जरूरत होती, बल्कि उसीमें अंतर्भूत है । टीकाकारने भी, शाब्दके 'लौकिक' और 'शास्त्रज' ऐसे दो भेदोंकी कल्पना करके, यह सूचित किया है कि इन दोनोंका ही लक्षण इस आठवें पद्यमें आगया है;* इससे ९ वें पद्यमें शाब्दके 'शास्त्रज' भेदका उल्लेख नहीं, यह और भी स्पष्ट हो जाता है । तीसरे, ग्रंथ भरमें इससे पहले, 'शास्त्र' या 'आगम' शब्दका कहीं प्रयोग नहीं हुआ जिसके स्वरूपका प्रतिपादक ही यह ९ वाँ पद्य समझ लिया जाता, और न 'शास्त्रज' नामके भेदका ही मूल ग्रंथमें कोई निर्देश है जिसके एक अवयव (शास्त्र) का लक्षण प्रतिपादक यह पद्य हो सकता; चौथे यदि यह कहा जाय "तदेवं स्वार्थानुमानलक्षणं प्रतिपाच तद्वता भ्रान्तताविप्रतिपत्तिं च निरा. कृस्प मधुना प्रतिपादितपदार्यानुमानलक्षण एवारुपवक्तव्यत्वात् तावच्छाग्दल. क्षणमाह"। १ स्वपराभासी निर्वाध ज्ञानको ही 'न्यायावतार' के प्रथम पद्यमें प्रमाणका लक्षण बतलाया है, इस लिये प्रमाणके प्रत्येक भेदमें उसकी व्याप्ति होनी चाहिये। * 'शाब्दं च द्विधा भवति-शौकिक शाम चेति। तत्रेदं योरपि साधारण प्रतिपादितम् ।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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