SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२. स्वामी समन्तभद्र। System) के गुप्ततत्त्वका परिचय प्राप्त करनेकी इच्छासे एक गुलामके वेषमें दक्षिणकी यात्रा की, वहाँ यह मालूम करके कि कुमारिल ब्राह्मण इस विषयका अद्वितीय विद्वान् है, अपने आपको उसकी सेवामें रक्खा और अपनी सेवासे उसे प्रसन्न करके उससे उक्त दर्शनके गुप्त सिद्धान्तोको मालूम किया । इस सब कथनसे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि धर्मकीर्ति ६३५से पहले ही कुमारिलकी सेवामें पहुँच गये थे, और उस समय कुमारिल वृद्ध नहीं तो प्रायः४० वर्षकी अवस्थाके अवश्य होंगे। ऐसी हालतमें कुमारिलका समय पीछेकी ओर ई० सन् ६००के करीब पहुँच जाता है, और यही समय, ऊपर, समन्तभद्रका बतलाया गया है। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि विद्याभूषणजीने,वास्तवमें, समंतभद्र और कुमारिलको प्रायः समकालीन ठहराया है। परंतु कुमारिलने, अपने " श्लोकवार्तिक' में, अक्लंकदेवके 'अष्टशती' ग्रंथ पर, उसके 'आज्ञाप्रधाना हि....' इत्यादि वाक्योंको लेकर, कुछ कटाक्ष किये हैं, ऐसा प्रोफेसर के० बी० पाठक 'दिगम्बरजैनसाहित्यमें कुमारिलका स्थान' नामक अपने निबंधमें, सूचित करते हैं और साथ ही यह प्रकट करते हैं कि कुमारिल अकलंकसे कुछ वाद तक जीवित रहा है, इसीसे जो आक्षेप अष्टशतीके वाक्योंपर कुमारिलने किये उनके निराकरणका अवसर स्वयं अकलंकको नहीं मिल सका, वह काम बादमें अकलंकके शिष्यों (विद्यानंद और प्रभाचंद्र ) को करना पड़ा। उक्त 'अष्टशती' ग्रंथ समंतभद्रके 'देवागम' स्तोत्रका भाष्य है, यह पहले जाहिर किया जा चुका है। इससे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि समंतभद्रके एक ग्रंथके ऊपर कई शताब्दी पीछेके बने हुए भाष्य पर, भाष्यकारकी १'अष्टशती' भाष्य कई शताब्दी पीछेका बना हुआ है, यह बात आगे बसकर स्वयं मालम हो जायगी।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy