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________________ मुनि-जीवन और आपत्काल । आया हूँ कितनी बे सिरपैरकी बात है, कितनी भारी भूल है और उससे कथामें कितनी कृत्रिमता आ जाती है। जान पड़ता है ब्रह्म नेमिदत्त इन दोनों पुरातन पद्योंको किसी तरह कथामें संगृहीत कर देना चाहते थे और उस संग्रहकी धुनमें उन्हें इन पद्योंके अर्थसम्बंधका कुछ भी खयाल नहीं रहा। यही वजह है कि वे कथामें उनको यथेष्ट स्थान पर देने अथवा उन्हें ठीक तौर पर संकलित करनेमें कृतकार्य नहीं हो सके । उनका इस प्रसंग पर, 'स्फुट काव्यद्वयं चेति योगीन्द्रः समुवाच सः' यह लिखकर, उक्त पद्योंका उद्धृत करना कथाके गौरव और उसकी अकृत्रिमताको बहुत कुछ कम कर देता है। इन पद्योंमें वादकी घोषणा होनेसे ही ऐसा मालूम देता है कि ब्रह्मनेमिदत्तने, राजामें जैनधर्मकी श्रद्धा उत्पन्न करानेसे पहले, समंतभद्रका एकान्तवादियोसे वाद कराया है; अन्यथा इतने बड़े चमत्कारके अवसर पर उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। कांचीके बाद समंतभद्रका वह भ्रमण भी पहले पद्यको लक्ष्यमें रखकर ही कराया गया मालूम होता है। यद्यपि उसमें भी कुछ त्रुटियाँ हैं-वहाँ, पद्यानुसार कांचीके बाद, लांबुशमें समंतभद्रके 'पाण्डुपिण्ड' रूपसे ( शरीरमें भस्म रमाए हुए) रहनेका कोई उल्लेख ही नहीं है, और न दशपुरमें रहते हुए उनके मृष्टभोजी होनेकी प्रतिज्ञाका ही कोई उल्लेख है-परंतु इन्हें रहने दीजिये; सबसे बड़ी बात यह है कि उस पद्यमें ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं है जिससे यह मालूम होता हो कि समंतभद्र उस समय भस्मक व्योधिसे युक्त थे अथवा भोजनकी १ कुछ जैन विद्वानोंने इस पद्यका अर्थ देते हुए, 'मलमलिनतनुलाम्बुशे पा"दुपिण्डः 'पदोंका कुछ भी अर्थ न देकर उसके स्थानमें 'शरीरमें रोग होनेसे' ऐसा एक खंडवाक्य दिया है जो ठीक नहीं है । इस पद्यमें एक स्थानपर 'पाण्ड
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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