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________________ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि सालंधणो पडतो वि अप्पाणं दुग्गमे वि धारेह । इय सालंबणसेवी धारेइ जइ असद भावं ॥ ५६ ॥ सालम्बनः पततोऽप्यात्मानं दुर्गमेऽपि धारयति। इति सालम्बनसेवी धारयति यद्यशठभावम् ।। ५६ ।। अर्थसहारे वाला व्यक्ति दुर्गममार्ग में गिरते हुए भी आत्मा की रक्षा कर लेता है। इसी प्रकार सकारण अपवाद का सेवन करने वाला भी यदि सरल भाव को रखता है तो अपने आप को दुर्गति से बचा लेता है। वुत्त सिद्धन्तसुत्त सु-गीयत्यहिं वि दंसियं । तमित्थालंवणं होइ, सुठ्ठ पुढे न सेसयं ॥ ६० ॥ प्रोक्तं सिद्धान्तसूत्रेषु-गीतार्थेरपि दर्शितम् । तदवालम्बनं भवति सुष्ठु पृष्टं न शेपकम् ॥६॥ अर्थ-सिद्धान्तसूत्रों में कहा हुआ और गीतार्थ आचार्यों द्वारा दर्शित मार्ग ही यहां पर आलंबन होता है जो कि भली प्रकार पूछा हुआ समझा हुआ होता है। दूसरा नहीं। साहम्मियाण जो दवं, लेइ नो दाउमिच्छइ । संते वित्ते सगेहेवि होज्जा किं तस्स दसणं ॥ ६१ ॥ साधर्मिकाणा यो द्रव्यं लाति नो दातुमिच्छति। सति वित्ते स गेहेऽपि भवेत् किं तस्य दशनम् ।। ६१ ॥
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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