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________________ व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम् rrrrrrrrr . . .mar - Norww तहाणहाण साहूण, मन्नवत्थाइचिंतणं । कुणंति समणीणं न, तेसिं सम्मत्तमत्थि किं ।। ४१ ॥ तत्स्थानस्थानां साधूना-मन्नवस्त्रादिचिन्तनम् । कुर्वन्ति श्रमणीना न, तेपा सम्यक्त्वमस्ति किम् ।। ४१॥ अर्थ धार्मिक कुटुम्य स्थानीय साधु और सा चीयों के अन्न-वस्त्र आदि की यदि वे धावक चिन्ता-गार मभाल नहीं रखते तो उनमे सम्पयत्व होता है क्या ? अर्थात् नहीं होता। जओ वॉचं सुस्म्स धम्मराओ गुरुदेवाण समाहीए । वेयावच्चे नियमो सम्मद्दिटिस्स लिंगाई ॥ ४२ ॥ यत उक्तं शुश्रूपा, धर्मरागो गुरुदेवानां समाधौ। वैयवृत्ये नियमः सम्यहप्टेलिगानि ॥४२॥ अर्थ- इसीलिये कहा है कि गुरुदेवों को शुभ्रूमा करना, धर्म पर राग रसना, गुरुओं की समाधि को बढ़ाना, यापमा करने का नियम रखना ये राम्यगृष्टि के चित्र है। साहण कप्पणिज्जं जं नवि दिन्नं कहिं चि (किंचि) तहिं । धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न भुंजंति ॥ ४३ ॥ साधनां कल्पनीयं यन नापि कहिचिन किभित्तहिं । धीरा यथोतकारिणः सुश्रावका तन मुमन्ते ।। ४ ।।
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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