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________________ लकम् ३७ व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम् वायणा सरिणो जुत्ता, निसेज्जा पयकंवला । चउकी पुष्टिवट्टो य, पायाहो-पाय पुंछणं ॥ १५ ॥ वाचना सुग्युक्ता निपद्या पदकम्बला । चतुष्किका पृष्टिपट्टश्च-पाढाधः पादपोंछनम् ।। १५ ।। अर्थ-आचार्य महाराज मे वाचना का होना युक्त है। आमन परकम्बल चौको पीठफलक और पैरों के नीचे पादौछन भी आचार्य महाराज के लिये होते हैं। अर्थ - वाचनाचार्य के लिये निपद्या-आसन पदकवल चौकी पीठफलक पदतल पादपोंछन होना युक्त है। पाएन चंदणं जुत्त न कप्पुराइ खेवणं । साविया धवले दिति, एसोसुगुरु दिक्खिओ ॥ १६ ॥ पादयोश्चन्दनं युक्त न कर्पूरादिक्षेपणं । श्राविका धवलान् दृढत्येप 'सुगुमटः ॥१६॥ त्येप (विधिः) सुगुरुदर्शितः ।। अयं-अगपूजा के समय आचार्यदेव के चरणों में चटन लगाना गुरू है. न कि कपूर आदि का ग्येना। आचार्य देव के सामने प्राधिकार धवल देती हैं मगल गीत गाती हैं। एसे मुगुरु देखे गये है। अथरा यह मुगुरु का फरमान है।
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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