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________________ स्वयं अनाचार-प्रस्त नहीं हुआ, अपितु दूसरों को भी अनाचारअस्त बना कर भारत के पतन का मुख्य कारण वना। ___ ख्रिस्तीय आठवीं शताब्दी के आसपास जैनधर्म भी इसी पतन की तरफ किसी न किसी अंश मे अग्रसर हो चुका था। आचार्य-प्रवर श्रीहरिभद्र के कथनानुसार कई जैन साधु मन्दिरों में रहते, उनके धन का उपभोग करते, मिष्टान्न. घृत, ताम्बूल आदि से अपने शरीर और जिह्वा को तृप्र करते. और नृत्य, गीतादि का आनन्द लेते। यदि जैन धर्म के विषय में इनसे प्रश्न किया जाता तो इहकालीन कई धर्माध्यक्षों के अनुसार यही कह कर टाल देते कि यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म है, श्रावकों को मति के लिये अगम्य है। केशलुञ्चन का इन्होंने परित्याग कर दिया था, स्त्रियों की संगति को ये सर्वथा त्याज्य नहीं समझते थे, धनी गृहस्थों का विशेष मान करते, और अन्य भी कई जिन शिक्षा के विरुद्ध आचरण किया करते थे। यदि प्रभावक चरित के कथन का विश्वास किया जाय तो उस समय के कई वड़े वडं आचार्य भी इस आचारशथिल्य से सर्वथा अस्पृष्ट नहीं थे। कन्नौज के सम्राट नागभट्ट द्वितीय के गुरु सुविख्यात श्रीवप्पभट्टि हाथी पर सवार होते थे, उनके शिर पर चमर डुलाए जाते थे, और उनका राजाओं के समान सम्मान किया जाता था। श्रीहरिभद्राचार्य ने इस स्थिति को सुधारने का प्रयत्न किया। परन्तु उन्हें पूरी सफलता न मिली। स्वयं श्रीहरिभद्रा
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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