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________________ (५." -g. अथे श्री संघपट्टका - verAMANNAM तो जेमां दोष न होय तेमां पण दोष खोली काढीन दोषमुंज म. हण करे ॥ टीकाः यमुक्तं ॥नात्रातीव विधातव्यं दोषदृष्टिपरं मनः॥ दोषो ह्यविद्यमानोपि तच्चितानां प्रकाशत इति ॥२॥ अर्थः-जे माटे शास्त्रमा काले जे अतिशे दोष दृष्टिने विष तत्पर मन न करवू केम जे दोष न होय तो पण दोष दृष्टिवालाना चित्तमा दोष जासे ॥ इत्यादि ॥ . टीका तथा मिथ्यापथप्रत्यर्थीति ॥ मिथ्यापथो वक्ष्यमा एपलक्षणो यथाबंदप्ररूपितोत्सूत्रमार्गः॥ तस्य प्रत्यर्थी विरोधी॥ उत्सूत्रमार्ग श्रोतुमप्यनिछुः ॥ उत्सूत्रपथालिलाषुकस्य हि यथार्थ सिद्धांतोपदेशस्त्रासाय स्यात् ॥ अर्थः-वली ते श्रोता केवो होय तो मिथ्यामार्गनो शत्रु, एटले आगल कहीशुं एवां जेनां लक्षण ने एवोपोतानी श्वाप्रमाणे प्ररुपणा कस्यो जे जत्सूत्र मार्ग तेनो विरोधी एटले उत्सूत्र मार्गने सांजलवानी पण श्वा नथी करता, केम के उत्सर्ग मार्गना अजि. लाषी पुरुषने निश्चे यथार्थ सिद्धांतनोजे उपदेश तेत्रासन्नणी थाय , टीका:-यक्त खुद्दमिगाणं पुणसुद्धदेसणा सीहनायसमेति अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कयु ने जे कुछ पुरुष रूप मृग तेमने शुकदेशनाते ते सिंहनाद जेवी ने एटले त्रास उपजावनारी के इत्यादि ॥ टीका:-तथा विनीत इति ॥ गुर्वादिष्वन्युत्थानादिकरणसाससः॥ विनीतायैव हि गुरुवः सिद्धांततत्वं प्रतिपादयंति ॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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