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________________ (४८) 8. अथ श्री संघपटकः - GRAMMAMmmmmmmanunananwwwwwww - wwwAAAmarwww टीकाः यतः सग्राहियो हि सदुपदेशरत्नश्रवणे परमानंदः समुखसति असनाहीतु तवणेपि कदाग्रहग्रस्ततया सद्युक्तीरपि स्वमतिकदिपताऽतात्विकवस्तुसमर्थकत्वेन योजयति ॥ अर्थः-जे हेतु माटे साची वस्तुने ग्रहण करनार पुरुषने तो सारा उपदेशरुपी रत्न सांजळीने परमानंद (उब्लास) प्राप्त थाय , ने असद् वस्तुने ग्रहण करनार पुरुषने तो ते सारी वस्तु सानले तो पण पोते कदाग्रहमा गळायो डे माटे शास्त्रोक्त सारी युक्तिने पण पोतानी मतिये कटपेली जे खोटी वस्तु तेनुं प्रतिपादन करवा जणी जोमे ॥ टीका-यदक्तं ॥ आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा ॥ पक्षपातरहितस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरेति निवेशमिति ॥ अर्थः ते वात शास्त्रमा कही जे जे आग्रही पुरुष ज्या पोतानी मति प्रवेश थने त्यां युक्ति पमामा श्छेले एटले जेक दामहमां पोतानी मति चोंटी ने त्यां शास्त्र युक्तिने लइ जवा इच्छे . ने पक्षरहित जे पुरुष तेनी मति तो ज्यां युक्ति ने त्यां प्रवेश पामे ने एटले युक्ति सहित ले तेनुज ग्रहण करे ए प्रकारे अहिं पण सारो पुरुष ले ते सारनुं ग्रहण करे ने ने असत् पुरुष नेते असतनुं ग्रहण करे ॥ टीकाः अथवा कल्याणं मोदः तत्रालिनिवेशोऽध्यवसायस्तवान् यतो जवाजिनंदिनां समुपदेशोपि न चेतसि स्थिति वनाति ॥ . .
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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