SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३५) * अथ श्री संघपट्टकः जेम निर्धन - पुरुषना मनोरथ सफळ न थाय तेम ॥ ६६ ॥ टीका :- गं मस्थल गलदान नीरशी करवर्षुकाः ॥ सखिताचंशुंगाढ्यास्तेन स्तंबेरमास्ततः ॥ ६५ ॥ अर्थ:- त्यारंपढी गंगस्थल थकी नीकळतुं जे मदनुं जल तेना विंदवाने वरसता ने श्राकरा वे शुंढादक जेना एवा हाथी विकुर्व्या ॥ ६७ ॥ टीका:- उद्यमानः प्रजौ तेऽपि तेजस्विनि तमोपदे । बजुवुमंदधामानो दीपाः प्राजातिका इव ॥ ६० ॥ प्रर्थः ते मोटा हाथी पण तेजवंत ने अज्ञान अंधकारने नाश करनार एवा प्रभुने विषे जेम प्रजातकालना दीवा निस्तेज वाय तेम प्रतापरहितं थया ॥ ६८ ॥ टीकाः - इत्यादि जिर्महाजी मैर्कमरैः समरैखि ॥ - ज्यति जिने जिष्णो मेघमाली त्यचिंतयत् ॥ ६५ ॥ अर्थः- पूर्वे का ए यदि संग्रामनी पेठे मोटा जयंकर एवा उपद्रववमे जीतवानुं जेने शील बे एवा जिनपार्श्वनाथजी होन न पामे बते मेघमाली देव एम विचारतो वो ॥ ६ ॥ टीकाः कथमेव मया क्षोज्यो दीप्रोकंप्रः सुमेरुवत् ॥ श्रा ज्ञातं सलिलौधेन प्रक्षिपामि सरस्वति ॥ ७० ॥ अर्थः- जे मेरु पर्वतनी पेठे देदीप्यमान अने कंपे नहीं एवा या भगवंतने हूं कीये प्रकारे दोन पमाऊं एम विचार करतां श्ररे एमां शुं वे ? एम- अवगणना पूर्वक विचार कर्यो जे पाशीना प्रवाह
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy