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________________ ( १७२) 4 जय श्री संघपट्टकः स्वरूपवत्पर रूपेणापि सत्वात्तद्रूपापल्या स्वरुपापगम प्रसंग: अनेक रूपत्वाभ्युपगमे वा जगद्वैचित्र्य जंगप्रसंगात् ॥ अर्थ- हवे सिद्धांती अन्यदर्शनीना एकांतमतने खंगन करे छे जे एकांत मत एज अति श्रेष्ठ वे एम तमारे न बोलवु केमजे जो एम कहता होय तो तारा वांचितने जपावनार बे विकरूप प्राप्त थाय बे, ते क्रया. तो पदार्थ मात्र सड़प के अथवा असप ए तने प्रश्न पूढीए बीए. तेमां जो सद्रूपज पदार्थ मात्र बे एम प्रथम विकल्प अंगिकार करे तो या प्रकारे दूषण प्राप्त थाय जे एकांतपणे सद्रूप पदार्थ ते घटना स्वरुपनी पेठे पटना स्वरुपनुं पण सद्रूपपणं बे तेथी स्वरूपापगमनामा दोषनी प्राप्ति यशे पटले घटपटना स्वरूप एकपणुं थशे. जो अनेक रूपपलानो अंगिकार करशे तो जगतनुं जे विचित्रपणुं बे तेना नाशनो प्रसंग थशें ए हेतु माटे. टीका:- एकस्मादेव घटादेः सकलपदार्थकार्यकारणो पपत्तेस्तथा च घंटो जलहरणवत्प्रावरणाद्यपि पटादिकार्यं कु'यन चैवं ॥ तस्मान्न सद्रूप एव जावाः ॥ नापि द्वितीयः ॥ एकांतासत्व स्वीकारे घटस्य पररूप वत्स्वरूपेणाप्यसत्वेन खरविबाणवदत्यं तान्नावप्रसंगात् ॥ तथा च नोदकार्थी घटार्थ प्रयते ततस्यात्यतासच्वेन समस्तार्थ क्रिया विरहात् ॥ अर्थः- एक घटादिक पदार्थथी सकळ पदार्थनो कार्य v "" ""
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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