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________________ (५५४) 8. अथ श्री संघपट्टका - M MAHAA अर्थः----षीने देखीने पण प्रसन्न अने प्रफुल्लित ने नेत्र ते जेमनां एवा सुविहित मुनि ने ए विशेषण बारणेथी कोप विका. रनो परिहार प्रगट करे . अंतरमां कोप विकार होय तो बहारथी निरंतर प्रशांतपणुं न रहे ए नाव . प्राणातिपात विरमणादि पंच महावत रुप उकुराश्ने पामेला सुविहित मुनि ने ए विशेषण दीक्षा जेनुं मूल बे एवी सर्व विरतिरुप संपदाने देखा . - टीका:-स्मयमुषः अहंकारतिरस्कारिणः॥ एतेन वारिमत्वविद्वत्वादावलिमानहेतौ सत्यपि तदलावं प्रकटयति ॥ (सत्सू. त्रक्रियान्तिः) कंदर्पकक्षप्लुषः मन्मथशुष्कतृणदाहिनः ॥ एतेन सर्वव्रतमध्ये निरपवादब्रह्मवतदाढ्यं दृढयति ॥ अर्थः-अहंकार ने तिरस्कार करनारा ए विशेषण अजिमाननां कारण रुप जे सुंदरवाणीपणुं तथा विधानपणुं ते सते पण अहंकार नथी एम प्रगट करे . सत्सूत्रनी क्रियानबके कामरुपी, सूका तृणने बाळनारा ए विशेषण सर्व व्रत मध्ये अपवाद रहित एवं ब्रह्मवत ने तेनुं दृढपणुं सुचवे बे. टीका:-सिकांताध्वनि शुद्धागममार्गे तस्थुषः स्थितवत स्तत्परा नित्यर्थः ॥ एतेन स्वयमुत्सूत्र क्रियानिषेधं प्रतिपा. दयति ॥ समयुषः समाजाजः ॥ एतेनांतरेपि क्रोध निरा. सं झापयति ।। ' अर्थ:---सिद्धांत मार्गने विषे रहेला एटले. तत्पर एटखो
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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