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________________ 48. अथ श्री संघपट्टका - टीका-दिक्कूस मुदुजख्यातिस्फातिप्रीणितविष्टपं ॥ कनं भारत साम्राज्यं सार्वजोमः पिपर्तियत् ॥ ॥ अर्थः-जे नवकार मंत्रना प्रनावथी दिशायोना समूहने नेदन करी चालतो जे जसनो विस्तार तेणे करीने प्रसन्न कर्यु ले जगत् जेणे एवं सुंदर चक्रवर्ती राज्यने चक्रवर्तीराज थर पालन करे ॥४ ॥ टीकाः-चंचवाया नृतः पंच नमस्कारफलमहेः विपक्रिम फलस्या स्य फलिका त हिजूंनते ॥ ४ ॥ अर्थः-देदीप्यमान लक्ष्मीनुं धारण करतो अथवा उज्जवल बायाने धारण करतो एवो ने परिपक्व जे फल जेनां एवा पंचनमस्काररूप फलवान वृदनी इंच पदवी मलवी तेतो एक फलीमात्र प्रगट शिंग थ . टीकाः-देवभूयं गते नागे तकाम्नाथ प्रतुं जनाः ॥ नुनुवं सूक्तिपीयूषस्यंदिनो बंदिनो जनाः ॥४॥ __ अर्थः ते नाग देवपणु पाम्या पली सुंदर वाणी रूप अमृतने वरसता एवा लोक तथा बंदिजन, तेमणे नजरे दीवेला मोटा प्रसापे करीने प्रतुनी स्तुति करता हवा ॥ ४ ॥ टीका-कोन्यः संवेदमेदस्वी नगवंतं विना त्र यत् ॥ १क्षतात् पद मप्येन मंतर्दारूरगं विजुम् ॥ ५० ॥ __ अर्थः-जे अहीं नगवान विना, बीजो कोण मोटो पुरुष नजरे न दीगमां श्रावे एवा पण काष्टना पोलाणमा रहेला ए मोटा सर्पने देखे ॥ ५॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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