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________________ ५२६) * अथ श्री संघपट्टकः रह्यो ३ एटले ए वे धोलासथी तथा उज्वलपणाशी सरखा जाय के ए हेतु माटे तथा परस्परनी निवृत्ति करे ए प्रकारनो कोइ जाति श्रादिकनो नेद धर्म पण जणातो नथो एटले विजाति धर्मवो वस्तु जुदी जणाय ने ते तो रुपाने विष तथा बीपने विर्षे धोलाश श्रादिक सदृश देखाय ने तेथी ब्रांति पामेला पुरुषने डीप देखीने श्री तो रुपुंडे ए प्रकारनी बुद्धिवमे ब्रांतिए करीने प्रवृत्ति ले तेम में लिंगधारीओ) पोतानी मतिए कटपेला मारगने विषे मूढ पुरुपोन श्री तो जैन मारगे ये एवी ब्रांति थाय डे. . . टीका:--तहाफि सन्मार्गा सन्मार्गगतजिनदेवताच्युप गमबाह्यावेषादिसमानधर्माऽवगमादन्योन्यव्यववेदकविध्यविधि प्रवत्यादिविशेषधर्मानवगमाञ्च वितथत्वादिना वस्तुतोऽनई. न्मतेपि प्रकृतमार्गेऽहन्मतमेतदितिबुद्ध्या मूढाः प्रवर्तत इति। न केवलमेतकुमार्ग वदंतिमूढास्तु तं गृहंत्यपीति च शब्दार्थः।। हो ति विषादे अर्थ-वळी सन्मार्गने विर्षे तथा असन्मार्गने विषे जिन देवंतानों अंगिकार रह्यो ते बेने विषे वाह्यथी वेषादि समान धर्म रह्यों के तेनुं ते ब्रांति पामेला पुरुषाने ज्ञान नथी, माटे एमकहे में आज जैन मार्ग बे ने वेळी विधि मार्गने विषेतथा अविधि.मा. गने विषे प्रवृत्ति श्रादिक जे परस्पर जेदजणावनारो विशेष धर्म तेनुं तेश्रोति पामेला पुरुषोने ज्ञान नथी माटे एम कहे. जे.आन जैन मार्ग के वस्तुताए तो एमां असत्यपणुं आदिक दोष रह्या ले मात्रै ए अरिहंतनो मार्गज नथी पणे हाल लोकनी प्रवृत्ति मार्गने विषे
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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