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________________ - वय श्री संघपट्टकः (you) कष्ट, मोटुं दुःख बे जे हवे सुविहित साधुना मस्तक उपरथी चारोहल करीने एटले माथा उपर चमीने राजी थाय बे एटले पद पद प्रत्ये इर्ष्याव असत् दोषनुं जे यारोपण करवुं तेणे करीने लघुपणानुं जे उत्पादन करवुं तेज तेमना माथा उपर पग मुक्यो जावो ते चत बुद्धिवाला एम जाये बे जे या काळमां जगतने विषे श्रमारा जेवो कोइ नथी ए प्रकारे अहंकारवमे धमधमती बे बुद्धि ते जेमनी एवा ए लिंगधारीचं हर्ष पामे बे एटले सुविहितपणाने मानता एवा ए सुविहित साधु जे ते अमोए लघु कर्या डे एटले एमनी हलकाश करी अर्थात् एमने मोए जीत्या वे एम मानीने राजी थाय बे ने पोतानी पासे पोताना जेवा जे लिंगधारी पुरुषो तेना परिवारवमे पोतानी मोटप मानी राजी थाय बे ने श्रावकादिकनी पूजावरे अ कारप धारण करे ने चकारनो ससुच्चय अर्थ एटले ए सर्व दोष एक एक लिंगधारी मां रह्या वे. टीका: कथमेवं विधा श्रपि सन्मुनिमूर्द्धावस्थानेन ते तुष्यंति पुष्यंति चेत्यत आह || अंत्याश्चर्यराजाश्रिताः पाश्चात्याश्चर्य पार्थिवानुगताय तइति हेतुगर्भविशेषणं ॥ एतडुक्कं जवति ॥ नह्येवं विधाकृत्य विधायिनो महामुनीनां मस्तकेन्त्रवस्यानं कर्तुं पारयति ॥ अर्थः- दवे ए प्रकारना लिंगधारीन ठे तोपा सारा मुनिना मस्तकने विषे निवास करवो तेणे करीने केम प्रसन्न थाय ठे पुष्ट थाये एटले राजी रहे वे एम जो कहता होय तो तेनो उत्तर कड़े ते जे दशमा आश्चर्य रुपी राजानो श्राश्रय करीने ए लिंगधारीन
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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