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________________ - अय श्री संघपट्टक - (४७३) MARAAAAAAAnnnnnww me ManaMARAamananew AAAAAAMRAKHA - अर्थः-केम जे दंम शब्दनो एम अर्थ थाय ले जे श्रात्माने पुर्गतिमां नाखवावमे दुःखित करे ले तेने दंम कहीए ते अकुशल एटले सारां नहि एवां जे मन वाणी ने शरीर तेज देहधारोने उन्मार्गमा प्रवर्तववाथी ने चपळपणाथी घोमा समान कह्या ते हेतु माटे जबळता एटले नियम रहित मनमां आवे तेम गमन करता माटे गौरववमे आकरा एवा ने मन वचन ने कायारूपी घोमा ते जेमना एवा एटले जेमनां मन वचन ने काया ते सर्वे नमत डे एवा लिंगधारी. - टीका-यथाहि तुरगा निर्वलाअपिजातिस्वाताव्याद्वगंति यदातु गौरवेण बलोपचयेन दर्पिष्टास्तदा किं वक्तव्यं ॥ एवंदंमाअपि स्वरुपणैव तावद्धरा ध्यादिगौरवत्रयसंकलित्तानां तेषां का कथा ॥ अर्थ:-जेम घोमा निर्वळ होय तो पण एनी जाति स्वन्नावधीज चंचळ होय तो पारे गौरव वळवमे मदोन्मत थाय त्यारे तो शुं कहे. एम मन वचन ने काया ते रूपो जे दंम ते पण स्व. रुपवमे एटले पोतानी मेळेज उडत ठे ते ज्यारे कति गौरव रस गौरव ने साता गौरव ए त्ररावने सहित थयां सारे तेना उचतपपानी शी वात कहेवी. टीका:-न च यतीनां दंमत्रयोद्धासनमुपपन्नं ॥ दुर्गति. हेतुत्वेन तस्यानुचितत्वात् ॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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