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________________ अथ श्री संघपट्टक अर्थः--हवे लिंगधारी बोले ले जे मिथ्यादृष्टिए ग्रहण करेंसी जे प्रतिमा तेने कोई प्रकारे जावग्रामपपुं नथी. केम जे ज्ञानादिकनो अन्नाव जे ए हेतु माटे एम जे तमो कहोगे ते न कहे. केमजे ते प्रतिमाउने जाव ग्राम पणुं नथी तोपरा वीतराग पणानुं चिह्न देखवे करीने कोश्ने समकित आदिक गुणनी उत्पत्ति दे-खाय . ए हेतु माटे,मान्य जे जे कारण माटे ए वातशास्त्रमा कही ने जे अज्ञान अंधकारनी नाश करनार अने देदिप्यमान अने मल रहित एवीजे जगवतनी प्रतिमा ते जेम सूर्य दृष्टिनो प्रकाश करे ने तेम रजोगुण वझे मलीन थएला पुरुषोने अज्ञान अंधारूं टाळीने श्रव. बोध उत्पन्न करे ने ए जिनराज त्रय जगतमां कया पुरुषने नमस्कार करवा, योग्य नथी? सर्वने नमस्कार करवा योग्य . टीका:-ततश्चायुघृतमितिवत् कारणे प्रतिमा लक्षणे ज्ञाना; - दिलक्षणकार्योपचारेण तासामपि नावग्रामत्व मुपपत्स्यत इति चेन्न ॥ एवं सति निवादीनामपि नावग्रामत्वापत्ते स्तेषामपि प्रशांतरूपक्रियादिदर्शनेन कस्यचित् सम्यत्वाद्युत्पत्तेः॥ __ अर्थः-ते हेतु माटे घृत ने तेज आयुष्य ने एटले घृत रूपी कारण थकी आनखारूपी कार्य नत्पन्न थाय डे एवा जेम न्याय लौकिक शास्त्रमा तेमज प्रतिमा रूपी कारण देखवाथी झामादि लक्षण जे कार्य तेनी उत्पति थाय. ए प्रकारे उपचार मात्रे करीने ते प्रतिमाने पण नाव ग्रामपणुं उत्पन्न थशे. एम जो तमे कहेता हो तो ते न कहे, एम सुविहित बोले जे. जे एम कहीए तो निह. वादिकने पण लावग्रामपणुं प्राप्त थाय केम जे . तेमतुं प्रण-प्रशांत - - - -
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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