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________________ ( ४४१ ) 48 अथ श्री संघपट्टक जे कारण होय ते नायतन कहीए ते लक्षण तो ए जिन मंदिस्मां पण श्राव्यं ए हेतु माटे उपाधिना दोषथी जिन जवननुं परा अनायतनप सिद्ध थाय बे. इति. टीका:-अनिश्रानिश्राकृतयो रन्येत रदेत दधिकृतं जिनभवनं भविष्यतीति चेन्न तलक्षणानुपपत्तेः तलकण मंतरेण च लक्ष्यस्य तत्तया व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् ॥ प्रर्थः -- प्रतिवादिने कहे वे के तु एम कहे वे जे अनिश्राकृत तथा निश्राकृत ए बेमांतु एक या जिनजवन पण हशे पण एम तारे न कहेतुं केम जे ए बेनुं पण लक्षण श्रा जिनजवनमां मळतुं नथी श्रावतुं ने ते लक्षण मळ्या विना लक्ष्य वस्तुनी स्था पना करवा समर्थ न थवाय ऐटले जे वस्तुमां वस्तुनुं लक्षण न होय तेने ते प्रकारनी न कदेवाय लिंगधारीए निवास करेलुं जिनमंदिर मां निश्राकृतनुं लक्षण पण मळतुं नथी आवतुं ने अनिश्राकृतनुं पण लक्षण मळतुं नयी श्रावतुं टीकाः तथा हि ॥ नैतद निश्राकृतं ॥ अत्रोत्सूत्रेत्यादिना प्रागनिदितस्य तल्लक्षणस्य विधिरोधसोऽत्र विवक्षितचैत्येऽनवरतं प्रवता सर्वथा तद्विपरीतेनाऽविधिश्रोतसा समूलकायं क पितत्वात् ॥ अर्थ -- तेज कह | देखाने ठे जे ए जिनजवन निश्राकृतनयी केम जे अत्रोत्सूत्र इत्यादि पूर्वे कनुं जे विधि सहित करवा પ -
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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