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________________ ! ( ४३२) -49 अथ श्री संघपट्टकः अर्थः- वळी त्यां श्रावक लोकने तांबूल जक्षण नथी केम 'जे तेथी जगवंतनी श्राशातना थाय ए हेतु माटे तांबूल शब्दे 'करीने तंबोल पान इत्यादि गाथामां कहेलां जे पान तथा जोजन इत्यादिक पण उपलक्षणयी ग्रहण करवां. वळी गादी ध्यादिक प्रासन पण कोइ प्रकारनी श्राशातनानुं कारण बे माटे तेनो निषेध पण उपलक्षणथी जाणवो. ए प्रकारनी जे श्राज्ञा ते विधि डे. या जगाए ए प्रज्ञा कोइ यतिनी निश्रा विना करेलुं जे विधिचैत्य एटले सिद्धांतां कला विधि प्रमाणे निपजान्युं जे विधिचैत्य तेंने विषे पूर्वे कथं ते न होय एम संबंध बे. टीका:- तथा इद नखल्लु नैव निषेधो निवारणं कस्यापि वंदनपूजनादावुत्सूत्राषिणां तकानां चापिवंदनादिकं विद "धतां नं निषेधः क्रियते ॥ श्रद्धानंगमास्तर्यादिदोषा प्रसंगात् ॥ श्रुतविधिबहुमानी सिद्धांतक्रमादरवान् तुः पुनरर्थे श्रत्र सर्वोप तिः श्राद्धो वा यथाक्रमं व्याख्यानादौ चैत्यचिंतायां चाधिकारी योग्यः सिद्धांत विधिविधुरस्य साध्वादेर्व्याख्यानादौ नतत्राधि कार इत्यर्थः ॥ त्रिचतुरजनदृष्ट्याविधि परश्राद्धत्रयचतुष्टय • दृशात्र चैत्यद्रव्य वृध्यादिकं चैत्यचितनं कार्यं विधेयं नत्वेकाकिना निस्पृणापि || लोकापवादादिदोषापत्ते रिति प्रासंगिक वृत्तइयार्थः ॥ अर्थः-वळी या जगाए उत्सूत्र जाप कनुं वंदन पूजन श्रा free for aisa पण अमो निषेध नथी करता, ने वंदनादिकने करनार एवा जे ते उत्सूत्र जापकना जक्त लोको तेमने. पण निषेध
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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