SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - अय श्रीसंघपट्टका www www निकरुढ्या रात्रौ कैश्चिनिधियमानस्य निषेधो ज्ञापितः॥ एतेन प्रतिष्टाया श्राप रात्रौ निषेधः सूचितःतस्याः स्नात्रपुरःसरत्वात्॥ अर्थ:-ते हेतु माटे चैत्यमा ते लोकोनो पगज नथी एटसे प्रवेश नथीए प्रकार विधिकृत श्रीजिननु चैत्य जे एम संबंध २. वळी रात्रिए स्नान करवू तेना दोषनो समूह तो पूर्वे देखाइयो में तेमां “ सदा" शब्दनो “ सर्वे काळमां" एम अर्थ करवो तेथे करीने कोश्क वखत श्री महावीर स्वामीनु मोक्ष कल्याणक संबंधि स्नान श्रा काळनी रूढीए केटलाक रात्रिये करे तेनो पण निषेध जणाव्यो एटले देखायो. एणे करीने रात्रिये प्रतिष्टा करवी तेनो पण निषेध सूचव्यो एटले देखायो केमजे ते प्रतिष्ठा पण प्रथम स्नात्र कर्या पनी थाय बे ए हेतु माटे. टीका तथा साधूनां ममतामदीय मेजिनगृहप्रति मादिक मित्यादिकानास्ति ॥ गृहस्थस्यैव तनिर्मापणचिंतादावधिकारातथाच कथं जिनगृहादेर्यति ममकार विषयता ॥ प्राश्रयश्च तेषां नास्ति ॥ प्रागन्निहितदोषकलापात् ॥ अर्थः-वळी ज्यां साधूने ममता नथी एटले था जिन मंदिर तथा प्रतिमा इत्यादि हमारो ने इत्यादिरूप ते ज्या नथी के मजे ए चैत्यादिकनुं निपजावq तथा तेनी चिंता करवी इत्यादि. कने विषे गृहस्थनोज अधिकार जे ए हेतु माटे वळी जिनमंदिरनी ममतानो अवकाशज साधुने क्याथी होय ने ते जिनमंदिरमा रहे; सन
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy