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________________ - अय श्री संघपटक (४११) - थालएणं विहारेणं ठाणाचकमणेणय ॥ सका सुविहियानाऊंनासावेणइएणय । टीकाः-लोकेप्याकारेंगितादिभिरेव पार्थिवादीनामांतर प्रसादादिनावपरिच्छेदन विज्ञानुजी विप्रवृतीनां विज्ञप्त्यादि प्रवृत्तिदर्शनात् ॥ एवमनन्युपगमेच जगद्व्यवहारोज्छेदप्रसंगात् ॥ किंच माजूदतिगूढाशयतया वकवृत्तीनां केषांचिनस्थैमान साभ्यवसायावसायः॥ अर्थः-लोकने विषे पण वाद्य आकार चेष्टादिके करीनेज राजा श्रादिकना अंतरनी प्रसन्नता श्रादिक जे नाव तेने जापीने चतुर एवा जे सेवक श्रादिक पुरुषो तेमनी राजाने विज्ञप्ति करवी एटले अरज करवी इत्यादिकनी प्रवृत्ति देखाय ने एटले चतुर सेवक वाह्य श्राकारथो राजानी अंतरनी खुशी वतिने कोई कामकाज कहेवं होय ते कहे . इत्यादि व्यवहार प्रत्यक्ष देखाय ने जो एम नदि मानो तो जगतना व्यवहारने नुच्छेद थवानो प्रसंग श्रावशे. ए हेतु माटे वळी केटलाक गूढ अतिप्रायवाला जे ए हेतु माटे वगलानी पेठे नुपरथी सारी प्रवृत्ति देखामता तेमना मननो श्रध्यवसायनो निश्चय उद्मस्थ पुरुषोवते कलनामां कदापि नहि आवे तो पण वीजाना तो कलनामां आवशे माटे ते दांनिक पुरुपोना अतिप्राय जाणवानो नपाय देखा ठे. टीका:-तथा च तदनवसायात् क्रियतां तेपामगारमईका दिवहांनिकानामपिवंदनं ॥ येपांत्वाधुनिकन्यायेन प्रकटप्रति
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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