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________________ (३९६) - अय श्री सघपट्टका - टीकाःतन्त्र ॥ लोकाकर्षणेन स्वनिर्वाहहेतोखिंगिपरिग्रही• तस्य जिनबिंबस्योत्तमस्याप्यसउपाधिवशात् फुःपरिवारपरि वृतराजादेरिव वांछितफलासाधकत्वा जीनताध्यारोपेणोप · मानेन साम्यापादनादुपमानोपमेयनावोपपत्तेः । '', ''अर्थः-हवे उत्तरकार कहे जे जे तुंकडं बुंवे तेम नयी केम जे लोकन आकर्षण करवा माटे तथा पोताना निर्वाहने काजे जे लिंगधारीए ग्रहण कयु, जे जिनबिंब ते उत्तम ने तो पण असत् उपाधिना वशश्री जेम राजादिक ने ते माछो परिवार तेणे करीने वींटी सीधो होय ते वांवित फळ एटखे हित फळ तेनु साधन करी शकतो नथी तेम हीनपणानो आरोप करनार एवो मारे पण ए बमिशमांस साथे ए जिन बिंबनुं समपणुं प्रतिपादन करवाथी उपमान उपमेय नावनी सिद्धि थशे ए हेतु माटे. . टीका:-ननु तथापि नैतपमानं जिनबिंबस्य संगछते।। सिद्धांत कचिदपि जिनबिंबोद्देशेनैवंविधोपमानानुपलनात् ॥ अर्थः--वळी ते प्रतिवादी आशंका करे जे एम ने तो पण जिन बिंबने एवी उपमा घटेज कम केम जे सिद्धांतमां को जंगाए पस जिनबिंबने नद्देशीने एवी उपमा दीधी देखाती नथी. '' टीकाः-इति चेन्न तत्राप्युपलब्धः।तथाहिशीसह मंख'फलए इत्याद्यागमे स्व निर्वाहादिहेतुचैत्यादीनामुपमेयानामत्यतस्वसमताप्रदर्शनायोपमानमखफलकै रसिंहीनः स्वांत निगीर्ण
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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