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________________ - अब श्री संघपट्टक (१४३) NW - अर्थः-ते वात श्रागमने विषे कही जे जे. टीका:--अथ कथं पुनर्विधिकृते जिनग्रहादौकुमतायंशानुवेधः ॥ नच्यते॥ पूर्वोक्तानेककुतीर्थिक मत मध्यादेकमपिजिन गृहादिषुविदधतो नवति कुमतांशानुवेधः ॥ तथैकपदायल्पोसूत्रनाषिणः कुगुरोराज्ञा या किंचिंदेकरात्रिस्नानादिकं जिनजवनादौकुर्वतोयहान्युपेतसुगुरूक्तसमस्तधर्मकर्मविधायिनोपि कथंचि कुगुरूक्तमपिर्किचित्तत्र विधानस्य नवति कुगुरु लेशस्पर्शः॥ अर्थ:-हवे प्रतिवादी बोले ले के विधिए करीने करेला जे जिनमंदिर श्रादिक तेने विषे कुमतादिकनो अंशनोप्रवेश केम थाय. शी रीते थाय ने तो तेनो नत्तर कहे जे पूर्वे कह्या एवा जे अनेक कुतीर्थिक मत तेना मध्यथी एक पण जिनमंदिरादिकने विषे करनार पुरुषने कुमतना अंशनो प्रवेश थाय . वळी एक पदादि अटप पण उत्सूत्रने कहेनार एवा कुगुरुनी आज्ञाए करीने जिन मंदिरादिकने विषे रात्रि स्नात्र आदिक कांइ एक पण करनारने कुमतना अंशनो प्रवेश थाय ने अथवा प्राप्त थयेला जे सुगुरु तेणे कह्यु एवं जे समस्त धर्म कर्म तेने करतो एवो जे पुरुष तेने पण को प्रकारे ते जिनमंदिरादिकने विषे धर्म कर्म करनार कुगुरुना लेशनो स्पर्श थाय . टीका:-तथा दक्षिणादिदिगव्यवस्थितानां जगवत्प्रतिमा नांस्लान विधानेऽस्माकमाम्नायस्तस्मात्तत्रस्थितैरस्मानिरवस्नात्रं
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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