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________________ (२०) - अय श्री संघपट्टा - अर्थ नै प्रयोजन विना अनिधेय होय नहीं: माटें अनिधयना आकर्षणे करीने प्रयोजननु पण आकर्षण थयु केमके संतपुरुष प्रयोजन विना पदार्थ कहेवाने अर्थे प्रवर्तता नथी शाथी के तत्वहानिनो प्रसंग थाय माटे. एटले सत्पुरुषपणानी हानिने प्रसंग थाय ए हेतु माटे अथवा सार वस्तु (ज्ञान, दर्शन, चारित्र)नी हानि न थाय एज ग्रंथ करवानुं प्रयोजन ... , . टीकाः-तच्च विविध मनंतरं परंपरं च ॥ पुनस्तदपि कर्तृ'श्रोतृत्नेदा विविधं ॥ तत्र कर्तुं रनंतरप्रयोजनं विनयानां सं. 'घव्यवस्थाधिगम करणं श्रोतु श्वानंतरं संघव्यवस्था धिगमः परंपर तुच्योरपि परमपदंप्रातिः॥ अर्थः-तें प्रयोजन के प्रकारनुं ने एक अनंतर ने वीजें परंपर वळी ते. पण. का पुरूषने श्रोता पुरूषना जेदयी बे प्रकारर्नु में तेमा कर्ताने अनंतर प्रयोजन तो शिष्योने, संघनी व्यवस्थानुं जाणपणुं करावq एज . ने श्रोताने अनंतर प्रयोजन ए जे के संघनी व्यवस्था. जाणीने ते प्रमाणे प्रवर्तवु, ने वळीकर्ता तथा श्रोता वेने पण एंथी मोक्षपदनी प्राप्ति थवी तें रूप परंपर प्रयोजन ... . टीकाः तथाऽस्य प्रकरणस्ये . दमजिधेय मिति झापयताज्ञापित एवास्योपायो पेयन्नावलक्षणः संबंधः ।. : . : .. " - "अर्थः चळी. याप्रकरणने श्रा. कडेवा.योग्यं . एमजणावता या ग्रंथकारे उपाय भावने उपैयचाव के लक्षण जेनुं एवो सं. बंध जणाव्योज के " . . . . - टोकाः-तथाही दं प्रकरणं व्यवस्थितसंघव्यवस्थाधिगमोपाय: उपेयं च तदधिगम इति ।
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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