SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ((३२८') अथ श्री संघट्टक श्रवेश थकीं तेने या ते करवा योग्य बे के श्राते करवा योग्य नथी एवं ज्ञान नथी रहतुं माटे पितादिकने पण प्रहार करवा मां बे त्यारे तेने कोइ तेनाथी निवृत्ति पमाकवा जाय तोपण निवृति पामे नहि एम श्र श्रावक लोक पणं सारा खोटाना विवेके रहित ठे. माटे ते कुमार्ग की नयी निवृत्ति पामता हवे या काव्यमा घेणा farer देखाड्या नो अभिप्राय ए बे जे या काळनां श्रावक लो'को अत्यंत माथी निवृत्ति न पमाय एवो पोतानों गवरुपी ग्रह 'तेथे करीने गळाया वे एम जणाववनि अर्थे घणा विकल्प कला बे. टीका:- कृत्वा विधाय मूर्ध्नि शिरसि पदं पादं श्रुतस्य सिद्धां 'तोता तिक्रमेण निःशंकतया स्वगुरुलिंगप्रवत्तितासन्मार्गपोंषणमेव श्रुतमूर्ध्नि पादकरणं श्रुतमूर्ध्नि पादन्यसि च तेषामिदं बीजं ॥ जगवत् सिद्धांतो हिनैकांतेनैव विहितानुष्टान विधिनिष्टइत्यादि विवेकिनां निःश्रेयसाय नविष्यति किं श्रुतेनेत्यंतं 'लिंगनिर्ययुक्तं मूलपूर्वपक्षे ॥ तस्योपदेशस्य सततं सत्सकाशे श्रवणमिति ॥ एतच्चायुक्तं ॥ 4 अर्थः- शुं करीने ए प्रकारना थया डे तो सिद्धांतना मस्तक उपर पग दइने केम जे सिद्धांतमां जे कह्युं तेनुं निशंकपणे उल्लंधन करतुं ने पोताना जे लिंग धारी गुरु तेने प्रवर्त्ताव्यो जे सत् मार्ग तेनुं पोषण कर एज सिद्धांतने माथे पग दीधो कहेवाय माटे तेमने सिद्धांतने माथे पग दीधानुं तो आ बीज बे जे भगवत्नो सिद्धांत तो एकांतिकपणे को एवो जे अनुष्टान विधि तेने विषे 'असे तात्पर्य से जेनुं एवो नमी एवचनथी आरंजीने विवेकी ओन मोक ·
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy