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________________ 8. अथ श्री संघपट्टका - wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww - namnnavamme ॥ मूल काव्यम् ॥ क्षुत्दामःकिल कोपिरंकशिशुक प्रव्रज्य चैत्यै क्वचित्, कृत्वा कंचन पक्षमदतकलिः प्राप्त स्तदाचार्यकं ॥ ' चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गल्छेकुटुंबीयतिस्वं, • शकीयति बालिशीयति बुधान विश्वंवराकीयति ॥१५॥ . . टीका:-दुत्कामो बुजुदा श्लदणाकुतिः गृहस्थावस्थायां - किलेति:संजावनायां प्रत्यदोपलब्धमायथं संजावनास्यदतयव संतो वदंतीतिन्यायः ॥ श्रतः स्तदज्ञापनाय किलेति पदं ॥ चन्यथा संप्रति प्रत्यक्ष एवायमर्थ इति ॥ अर्थः-जुखवते जेनुं पेट चोंटी गयु ले ने आंखो नमी न. तरी गडे एवो रांकनो पुत्र गृहअवस्थामां होय एवं संलवे . माटे आ जगाए किल अव्ययनो संजावनारुप अर्थ करवो. केमजे सत्पुरूष डे ते प्रत्यक्ष जणातो एवोपण अर्थने संभावनानुं स्थानक में ए प्रकारेज कहे जे. एवो न्याय जे. ए हेतु माटे ते न्याय जणाववाने किल ए प्रकारनुं पद मूक्यु ने जो एम न होय तो श्रा का. कमां एअर्थ प्रत्यक्ष देखाय ने एटले रांकना नोकरा ए प्रकारना श्यसा प्रत्यक्ष देखाय तो ए वात संजवे ने एम संभावना शीद कहेत? टीकाः कोपि असात नामा रंका निकाकोऽत एव कुत्सि
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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