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________________ ( २९६) - अय श्री संघपट्टका : बहुगुणविहवेण जन एए लग्नंति ता कहमिमेसुं॥ एयदरिदाणं तह, सुमिणेवि पयट्टई चिंता॥ टीका:-जातायामपि कथंचित्किंचिन्नव्यवपरिपाकात्मा {तायामपि सद्धर्मबुझौ पुर्लज्ञोदुरासदः शुज गुरुयथार्थसिद्धांत प्ररुपणनिपुगोलोकप्रवाहबहिर्भूतेचतोवृत्तिःप्रतिवादिमददो द. कमः कालाद्यपेक्षानुष्टानपटिष्टा सूरिः ॥ श्रयमर्थः ॥ सद्धर्म मनोरथनावेपि समुपदेश गुरुविना नासावासाद्यते ॥ अर्थः-कोई प्रकारे कांक नव्यपणानी परिपाक अवस्थाने विषे सम वुद्धि यये सते पण शुजगुरु मलवो उर्लन ने तोजथार्थ सिद्धांतनी प्ररूपणा करवामां कुडाळ डे ने जेना चित्तनी वृत्ति लोकप्रवाह यकी रहित , ने जे गुरु प्रतिवादिना मदने नास करवामां समर्थ डे ने वळी काळादिकनी अपेक्षाए अनुष्टान क्रिया करवामां अतिसे माह्यो डे एवौ गुरु एटले आयार्य ते मळवो उर्लन ने. श्रा अर्थ प्रगट जे सद्धर्म करवानो मनोरथ थये उते पण सारो उपदेष्टा गुरु मख्या विना सद्धर्म पमातो नथी. टीकाः यदुक्तं ॥ धम्मायरियेण विणा, अलहंता,सिद्धिसा. होवार्य । अरएब तुवलग्गा नमंति संसारचकंमि।सच प्रायेण सांप्रतमुस्सूत्रनाषकाचार्यप्राचुर्येण तथाविधोनासन्नाग्यलच्या अर्थ:-ते वात शास्त्रमा कही ले जे धर्माचार्य मळ्या विना सिद्धि पासवानां साधननो उपाय न पामता जीव संसार चक्रमां
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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