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________________ 8. अथ श्री संघपट्टका - VM mmwww - कांतनी युक्तिए करी खंगन कर्यु तो पण लंपटपणाथी तथा श्रनिनिवेशक मिथ्यात्व (कदाग्रह ) ना उदयथी पोताना हग्वादने नहीं मूकनारा अने पोतानी इच्छा प्रमाणे वर्त्तनारा एवा ते लिंगधारी श्रये उते. टीकाः-तत स्तऽत्सूत्रदेशनाविरलगरललहरी चरीकृष्य- ; माणहृदयशूमिनिहितचेतनाबीज मुदग्रदुर्निग्रहकुग्रहावग्रहशोशुष्यमाणविवेकांकुरं निरर्गल मुखकुहर निःसरहुर्वाणी कृपाणी- . कृतधार्मिकमाणं श्राझसंघ निरीदय ॥ अर्थः-त्यार पठी ते लिंगधारीनी उत्सूत्र देशनारूपी मोटा हलाहल फेरनी लेहेरोए करीने; “जेनुं हृदयरूपी पृथ्वीमा रहेढुं ज्ञानरूपी बीज, अतिशे खेंचाइ गयुंडे एवो तथा जेना. विवेकरूपी अंकुरा श्राकरा अने माग कदायहरूपी दुकाळ पमवाथी अतिशे सुकाया ने एवो, तथा जेने बोले बंध नथी एवां मुखरूपी बिजमांथी नीकळती माठीवाणीरूप तरवारे करीने धार्मिक लोकोनां मर्मस्थळ जेणे यां, एवो श्रावकनो समूह. थयो ते देखीने टीकाः तदुपचिकीर्षयाहृद्यानवद्यसमग्रविद्यानितंबिनीचुंबितवदनताम रसः सांसंवेगशास्त्रार्थरसायनपानवांतकामरसः ॥ अर्थः-तेमनो उपकार करवानी बाये, सुंदर अंने निर्दोष एवी समस्त विद्यारूपी स्त्रीयोये जेना मुख कमलने चुंबन कयु के, अर्थात् जेना मुखकलमां सर्व विद्यायो पोतानी मेळे श्रावीने रहेली ने एवा, अने घणां वैराग्यवंत शास्त्रनोनावार्थ जाणवा रूप रसायन औषधनुं पान करीने कामरस वमन को ठे एवा.
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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