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________________ 8. अथ श्री संघपट्टका (२८३) MAHARMA w अपरिचितमप्यनुचितमितियावत प्रस्तुतं प्रारब्ध माहतमित्यर्थः। तदेव नामग्राहमाह. टीका:-श्रनेक प्रकार- पण सावध आचरण तेनो समुदाय रुपे एकपणुं कहेवानी श्ला जे ए हेतु माटे अदस् शब्दनुं एकवचन कर्जा ले कथं प्रकारनो श्रापगनित एटले तिरस्कार सूचना करनार निपात ते आ जगाए कह्यो के लिंगधारीए शा प्रकार- आ. चरण प्रगट कर्यु ले ? तो निंदित प्रकारे एटले यतिने न करवापणे जे ले ते अनुचितनो आदर कर्यो के एटलो अर्थ डे तेनु नाम ग्रहण करीने कहे जे एटले श्रावस्तु न करवानी ने तेनो आदर करे ते वस्तु नाम जे. टीकाः-गृहीश्रावको नियतं गन्नांतरपरिहारेणैकतरंगच्छमाचार्यप्रतिबद्धयतिसमुदायं नजते परिगृह्णातिस तथा।गृहिनियः तगच्छन्नाक्त्वेन हि यतीनामिदानी सर्वनक्त पानादि निराबा निर्वहतीतिधिया नवतीतिक्रियापदंयथासंभवमत्राभ्याहार्य ॥ गृहिनियतगच्छन्नाक्त्वंच यतीनां तद्गतसकलारंजानुमत्यादिना पापसत्वप्रसंगेनासंस्तुतं । अर्थः-गृहस्थने पोत पोताना गझनो अंगीकार करवो बीजा गच्छमां न जq इत्यादि अघटीत स्थापन करेठे एटले श्रावक बीजा गछनो त्याग करीने हरेक को एक गच्छ एटले आचार्य प्रतिवक जे यतिनो समुदाय ते रुपी गच तेने नजे तेनुं सेवन करे ए प्रकारनो उपदेश करे के कारण के ज्यारे गृहस्थ नियमाये करी एक
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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