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________________ ॥श्री वीतरागाय नमः ॥ - ॥ श्री संघपट्टकः ॥ यस्यां तःसन्न मायतांसलजुजाः स्तन्व श्चतस्त्रः समं लांतिस्म च्युततांतिकांतिलहरीलोलत्रिलोकश्रियः। . शंक वदगदग्रविग्रहनवोपमाहिकर्महिषा मास्यूता विजिगीषया जगवता पायात् सवीरोजिनः ॥१॥ अर्थः-जेना समोसरणनी सजामां चारे दिशाने विषे चार मूर्ति साथे शोने . ते वीरजिन सर्वेनी रक्षा करो, ते मू. र्ति केवी ? तो के, शोजायमान खन्नाना नागथी सुंदर दीर्घ हाथ जेना ने एवी, जेनी मोटी कांतिना समुहरूपी तरंगने विषे त्रण लोकनी लक्ष्मी विलास करी रही ने एवी चार मूर्ति जणाय बे. ते उपर कवि उत्प्रेदा अलंकार करे , जेम नवोपग्राही चार कर्मरूपी शत्रु आत्मा साथे एकनावने न पामे एवाज कारणथी जाणे जीतवानी छाए ते लगवाने चार मूर्ति साथे धारण करी ठे के शुं ? ॥१॥ . क्वेमाश्रीजिनवान्नस्य सुगुरोः सूदमार्थसारागिरः . क्वाहंतद्विवृतौकमा क्लमजुषा जुर्मेधसामग्रणीः ॥ छिद्गन्न छिपदंतमंजनजुजस्तन्नै जयश्री क्वनु प्राप्यासंगरमूर्द्धनि व्यवसित क्लीवाश्वतद्धिप्सया ॥५॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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