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________________ -18 अथ श्री संघपट्टकः ( २३९ ) अर्थः वळी बीजो आत्मा व्यवस्था रुपी पक्ष तेने विषे पण ते परिग्रह नथी केम जे श्रागमने विषे जेने प्रत्रज्या लेवानी इच्छा होय अथवा जेणे प्रवज्या लइने त्याग करी बे एवा गृहस्थने विषेज श्राजाव्यव्यवस्थानुं देखवापणुं वे ए प्रव्रज्या लेवानी इहा होय ते सामयीकादि पाउने विषे प्रवर्तेंलो त्रण वरस सुधी प्रथमनो प्राचार्य जे सम कितने पमागनार तेनोज होय. टीका:- यक्तं || सामाश्याश्या खलु, धम्मायरियस्स तिनिजा वासा ॥ नियमेण होइ से होजक्वमन तडुवरिंजयणा ॥ यस्तु निजावादिर्भूत्वा पुनः प्रविवजिषति तस्य यदृच्छयादिक ॥ श्रत्यक्तसम्यक्तस्तूत्प्रवृज्ययः प्रव्रजति स त्रीणि वर्षाणि यावत् पूर्वाचार्यस्यैव ॥ यदाह ॥ परलिंगि निकएवा, सम्महंस जढे उ वसंते ॥ तद्दिवसमेव इछा सम्मत्तजुए समा तिन्नि ॥ अर्थः- जे माटे शास्त्रमां कह्युं बे जे निहृवादिक थैने फart प्रवज्या लेवानी इच्छा करे बे, तेने तो ज्यां इच्छामां श्रावे त्यां रहे ए दिश बे, ने जेणे सम कितनो त्याग कर्यो नथी ने ते प्रव्रज्या ग्रहण करे तो ते त्रण वरस सुधी पूर्वाचार्यनोज बे एम जाणवुं, जे माटे कंठे जे. टीका:- उत्पन्न जितस्तु द्विधा सारुपी गुहस्थश्च ॥ तत्र सा रूपी रजोदावर्जसाधुवेषधारी ॥ सचयावजीवं पूर्वाचार्यस्यैव ॥ सन्मुकी कतान्यपि ॥ या निपुनस्तेन नमुंगीकृतानि केवलंवो धिता "
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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