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________________ - जय श्री संघपट्टकः दज tad पात्र विषे पोताना द्रव्यनो व्यय करे बे माटे एवा श्रावक लोकवज कार्य थयुं त्यारे सिद्धांतमां निषेध करेलो ने - नर्थना समूहनुं मूळ एवो द्रव्यनो परिग्रह करवो तेरो करीने सर्यु एटले द्रव्यनो अंगिकार करवो घटतो नथी. ( २२७ ) टीका:- परमेवं कालाद्यौचित्येन पथ्यादिदातृसङ्गावेपियदिदानींतना यत्याजासा बालकाध्यापनमंत्रादिप्रयोगवैद्यकादिनिः पथ्यपुस्तकलेखना दिव्यपदेशेन गृयिज्योऽयमय मिकदा स्वापतेय निचयं संचिन्वाना उपलभ्यते तयनं विषयतृषा कर्षितान्तःकरणतयातेषामेवं द्रव्यसंग्रह प्रवृत्तिर्नतु ग्लाना दि हेतुना ॥ w अर्थः- परंतु या काळने उचित एवां पथ्यादि श्रौषधना देनार विद्यमान बते पण जे काळना या लिंगधारी पुरुषो वाळकोनुं नयावदुं मंत्रादि प्रयोग करवा तथा बैडुं कर्तुं तथा जेने जेवां जोइए तेने तेवां पुस्तक लखी आपवां इत्यादि द्रव्य उपार्जन करवानी क्रियाश्रोनो मिषवमे हुं मोटो धनाढ्य थजं हुं मोटो धनाढ्य थनं एवा अभिप्रायथी गृहस्थ लोको पासेथी धनना समूह ग्रहण करनारा एटले गृहस्थ पाथी अनेक युक्तिवमेधन लइ संचय करनारा देखाय बे ते निश्चे विषय तृष्णावने आकर्षण थयां जे अंत:करण तेणे करीने ते लिंगधारीने द्रव्य संग्रह करवामां प्रवृत्ति देखाय के, एटले ते लिंगधारी विषय जोगववानी इच्छाएज द्रव्यं पासे राखे बे पण ग्लानादि कारणे राखता नथी. टीका :- ॥ यक्तं || एका कित्वा विशुपतनतो मंत्रतंत्रैश्च
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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