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________________ (२२०) .. अथ श्री संघपट्टका - योने नगवतनी आशातनानुं कारणपणुं रोए हेतु माटे ने तेथोनी पण आशातनाने अनंत नवज्रमण रुपी रोगनी वृद्धि यवानुं काररापर्यु ले माटे अपथ्य नोजन तुल्य वे कोई प्रकारे आधार्मिक एवा पण निवासने विषे वसतुं पण जिनघरमां तो निवास करवोज नहि ए प्रकारे निर्धार थयो. टीका:-तस्माउक्तन्यायेन यतीनां परगृहवासस्य तदानी मिवेदानीमपि दोषालावात्समीचीनं यतीनां परगृहवासोनुपपन्नः अनेकदोषपुष्टत्वात् प्राणातिपातवदिति साधनप्रयोगो पि अपरोदित उक्तानेकदोषनिरासासिकत्वादसिकः प्रतिपादितो जवति, स्वपक्षसाधनं तु यतीनां परगृहवासो विधेयः नि:संगताभिव्यंजकत्वात् शुझोंबग्रहणवदिति ॥ तदेवं यतीनां चैत्यपरित्यागेनपरगृहवसतिरेव श्रेयसी ने तरेति वृत्त छयार्थः ॥ ए॥ अर्थ:-ते हेतु माटे श्रमारा कहेला न्याये करीने यतीने परघर निवास करवामां ते काले जेम दोष न हतो तेमज आ कालमां पण दोष नथी. माटे परघर निवास करवो ते वीक वे ने तमे जे अनुमान प्रयोग कर्यों हतो जे यतिने परघर निवास करवो ते अघटित , अनेक दोषे करीने दुष्ट ने ए हेतु माटेप्राणातिपातनी पेठे एवो जे अनुमान प्रयोग ते पण रमी पम्यो एटले व्यर्थ गयो।। केम जे अमे कह्या जे अनेक दोष तनुं निकारण न थतुं. माटे श्रसिक प्रतिपादन कयों , हवे अमारा पक्षमा तो अनुमान साधन श्रा प्रकार के, जे यतिने परघर निवास करवों ॥ निःसंगपणाने
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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