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________________ - अथ श्री संघपट्टक ऐया जहि अप्ययरा दोसा ॥आजरणाईण दूरओयसिया चिखमिणि निसिजागरणं गीएं सज्जायजाणा॥ अमाण निग्गयाई तिखुत्तों मग्गिऊण असईए ॥ग्गीयत्था जयणाए वसंति तो द. वसागरिए।अद्धाण निग्गयावासे सावयतिए व तेणजए,आत्र लिया तिविहेवी, वसंति जयणाएं गीयत्था ॥ अर्थः-आगळ पाळ श्रावी गयो बे. टीका:-इयं यतना स्त्रीसंसक्तवसतिमधिकृत्योक्ता ॥ पशु पंग संसक्तायामपि वसतो वसतामेतदनुसारेण संजविनीययः तना दृष्टव्या ॥ तदयमर्थः ॥ स्त्री संक्त्यादिसंनवेप्येवंविधयतनीसावधानानां मुनीनां न तज्जन्या दोषाः प्रादुष्यंति स. र्वत्र सर्वस्मिन्नपि वसत्यधिकारप्रवृत्तोद्देशकाप्दौ ॥ अर्थः-ए प्रकारनी यतना स्त्रीना संबंध सहित ज्यारे निवास होय तेनो अधिकार करीने कही डे माटे पशु तथा नपुंसकना संबंधवाळा निवासमां पण रहेनारने आ यतनाने अनुसारे जेम संनवे तेम यतना करवी तेनो अर्थ प्रगट डे जे स्त्रीनो संन्नव आ. दिक थवानो संन्नव होय त्यां पण ए प्रकारनी यतना करवामां साः वधान रहेता मुनियोने ते स्त्रीयादिकना संबंधथी थएला दोष नहीं प्रगट थाय एम सर्व जगाए एटले साधुना निवासना अधिकारमा प्रवर्नेक्षा सर्व नद्देशक आदिकने विषे एम जाणवू यतनावालाने स्त्रीयादिकना संबंधथी थएला दोष नही प्रगट थाय २७
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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