SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (.१९४) 18. अथ श्री सघपट्टकः - - टीकाः इदानी जिनाद्यासेवितत्वेन सिद्धांतोतत्वेन च य. तीनां परगृहवसतिं व्यवस्थापयन् वसत्यक्षमाधार वृत्तहयेन . निरसिसिषुराह ॥ अर्थ:-दवे साधुने परघरमां निवास करवो केमजे जिन परमात्मा आदिक पुरुषोए परघर वास को डे ए हेतु माटे ने सिकांतमां पण परघर वास करवानो कह्यो , माटे साधुने परघर वास करवो ए प्रकारे स्थापन करता सता वसति अक्षमा नामे मारने वे काव्य वमे निराकरण करता एटले वसति जे परघर तेमां साधुने न रहे एवां जे लिंगधारीनां वचन तेनुं खंमन करता सता कहे जे. ॥ मूलकाव्य ॥ . “ साक्षाजिनैर्गणधरैश्च निषेवितोक्तां, निःसंगताग्रिमपदं मुनिपुंगवानां ॥ शय्यातरोक्ति मनगारपदं च जानन् विष्टि कःपरगृहे वसतिं सकर्णः ॥ ७॥ चित्रोसर्गापवादे यदिद शिवपुरीदूतजूते निशीथे, प्रागुक्ताभरिनेदा 'गृहिगृहवसती कारणे पोद्य पश्चात् ॥ स्त्रीसंसक्तादियुक्तप्यनिदितयतनाकारिण संयतानां सर्वत्रागारिघाम्निन्ययमि नतु मत क्वापि चैत्ये निवासः ॥ ५॥ . टीका-कासकर्ण:पुमान् परगृहेगृहिसदने वसति निवास विष्टि अनुशेते मात्सर्यान्नक्षमते निषेधतीतियावत् । मुनिपुंग
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy