SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - अय श्री संघपट्टकः ११८३) m anuman तार्थ पुरुषोए ए चैत्यवास आचर्यों डे, माटे अप्रमाणिक नथी. एम जे तारूं कहे ते सारु नथी. एटले खोटुं कहुं बु केमजे नत्सूत्र आचरणा करवी एज मोटो विशेष दोष , एम अमोए प्रथम दे. खामयुं . ने पासथ्यादिके ए चैत्यवास आचर्यों डे, ए प्रकारे कही देखाम, तेणे करीने गीतार्था चहितरुपी हेतुनुं खंगन कयु बे. माटे ते घणा पासथ्याए चैत्यवास आचरण कयों ने तो पण अशुहिनो करनार डे; अप्रमाणिक डे केम जे जो एक गीतार्थ पुरुषे आचरण कों होय तो पण प्रामाणिकपणुं थाय ए हेतु माटे टीका:- यदाह ॥ जंजीय मसोहिकरं पासस्थपमत्त संजया एं बहुएहि विआनंनतेशजीएण ववहाशे। जंजीयं सोहिकरं संदिग्गपरायणेण दंतेण ॥ इक्केण वि आश्नं तेएय जीएण ववहारो॥ अर्थः-शास्त्रमा कयु जे जे ते अशुद्धि करनार कल्प ले जे पासथ्था ने प्रमत्त एटले मनमां आवे तेम चालनार नाम साधु एवा घशा पुरुषोए आचरण कयुं ते जीतकटपे करीने व्यवहार करवा योग्य नथी ने ते जीतकल्प शुकि करनार वे जे संविग्न परायण ने दांत एवा एक पुरुषे पण जे आचरण कर्यु बे. ते जीतकल्पे करीने व्यवहार करवा योग्य . टीकाः-एतेन यदपि गीतार्थाचरितत्वस्यासिकादिहेत्वा
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy